यदि नारी को समाज में उसका उचित स्थान दिलाना हैं...यदि नारी एक वस्तु न होकर वो भी पुरुषों की तरह एक इंसान हैं...तो कृपया इस रस्म के बारे में एक बार सोचिएगा जरुर...
दोस्तों, जैसा कि मैंने अपनी एक पोस्ट "सकारात्मक पहल- एक विधवा ने किया अपनी बेटी का कन्यादान!!" में कहा था कि मैं कन्यादान के रस्म के बारे में चर्चा करूंगी...तो आज हम यह चर्चा करते हैं कि क्या आज भी 'कन्यादान' के रस्म की जरुरत हैं? इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें पहले यह जानना आवश्यक हैं कि 'दान' किसे कहते हैं? किसी भी चल-अचल संपत्ति के स्वामी द्वारा उस वस्तु के लिए कोई मूल्य लिए बगैर यदि वह वस्तु किसी अन्य को हस्तांतरित की जाती हैं, तो उसे 'दान' कहते हैं। यहां यह ध्यान देने योग्य हैं कि दान में दी जाने वाली वस्तु का पूर्ण स्वामित्व दान देने वाले के पास होना आवश्यक हैं। मतलब दान की जाने वाली वस्तु दानदाता की निजी संपत्ति हो यह अति आवश्यक हैं। दान में मिली वस्तुओं की कद्र नहीं होती शायद इसलिए ससुराल वाले बहुओ की कद्र नहीं करते क्योंकि दान में मिली है सो चाहे जैसा इस्तेमाल करे...वाली सोच व्याप्त हो जाती है। हर नारी की हार्दिक इच्छा रहती है कि उसे एक इंसान समझा जाए, वस्तु समझ कर उसका दान न किया जाय। लेकिन परिवार और समाज के आगे उसकी नहीं चलती। युधिष्ठिर, जिन्हें हम धर्मराज कहते है उन्होंने भी द्रोपदी को एक वस्तु समझ कर पांचों भाइयों में बांट लिया था! उनके इस कृत्य का वास्तव में व्यापक पैमाने पर विरोध होना चाहिए था। लेकिन नारी को वस्तु मानने की मानसिकता के कारण ही सब चुप रहे!! कई लोग कहते हैं कि माता सीता का भी कन्यादान हुआ था। यह रीत तो आदिकाल से चली आ रही हैं...फ़िर आज की नारी किस खेत की मूली हैं? मुझे एक बात बताइए, माता सीता की तो अग्निपरीक्षा ली गई थी...उन के चरित्र पर शक करके उन्हें गर्भावस्था में वन में भी छोड़ा गया था...क्या आप इन बातों को सही मानते हैं? नहीं न! तो फ़िर सिर्फ़ कन्यादान की रस्म को माता सीता का हुआ था इस आधार पर सही कैसे मान सकते हैं?
आइए, अब कन्यादान के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हैं...
• कन्या वस्तु नहीं हैं!
दान किसी वस्तु का किया जाता हैं, इंसान का नहीं। हमारे संविधान में भी नारी-पुरुष समानता को मंज़ूरी दी हुई हैं। फ़िर कन्या का एक वस्तु की तरह दान कैसे किया जा सकता हैं? कन्या को सुखी और सुरक्षित ज़िंदगी सौंपने का मतलब यह कतई नहीं है कि उसे दान जैसे शब्द की सीमाओं में बांध कर उसकी गरिमा को कम किया जाए।
• माता-पिता के पास पुत्री का पूर्ण स्वामित्व नहीं हैं!
यदि पुत्री को माता-पिता की संपत्ति मान लिया जाए तो इसका मतलब हुआ कि पिता को अपनी पुत्री का उपभोग करने का पूर्ण अधिकार हैं। किंतु ऐसी कल्पना भी करना हमारे लिए बिल्कुल असंभव, निंदनीय ही नहीं हैं तो समाजिक दृष्टी से भी यह महापाप हैं। इस दृष्टिकोण से पुत्री यदि पिता की निजी संपत्ति नहीं हैं तो पिता को क्या अधिकार हैं कि वो अपनी पुत्री का दान करें? वास्तव में माता-पिता कन्या का पालन-पोषण करते हैं इसलिए वे कन्या के पालक भर हैं, स्वामी नहीं। जब माता-पिता के पास कन्या का स्वामित्व ही नहीं हैं तो वे कन्या का दान कैसे कर सकते हैं?
• वर यह नहीं कहता कि मैं तुम्हें दानस्वरुप स्वीकार करता हूं।
शादी के वक्त अपनी होने वाली पत्नी से दिए गए सात वचनों में वर कहता हैं, ''तुम्हारी उपस्थिति मेरे लिए भगवान का आशीर्वाद जैसा हैं। तुम्हारे आने से मेरा जीवन पवित्र हो गया हैं। मैं यह वचन देता हूं कि इस संबंध को मैं पूरी निष्ठा, समर्पण और ईमानदारी के साथ निभाऊंगा।'' वर कहीं भी यह नहीं कहता कि मैं तुम्हें दानस्वरुप स्वीकार करता हूं। बल्कि वर समर्पण की बात करता हैं। क्या दान लेने वाला समर्पण की बात करेगा? जब दान लेने वाले ने दान लिया ही नहीं तो दान की क्रिया पूर्ण कैसे हुई? और जब दान की क्रिया ही पूरी नहीं होती तो कन्यादान करने के मायने ही क्या हैं?
• क्या दान में मिली पत्नी 'गृहस्वामिनी' हो सकती हैं?
वर को यदि वधु दान के रुप में प्राप्त होती हैं तो वह उसकी दासी हुई। किंतु हमारे यहां पत्नी को 'गृहलक्ष्मी' और 'गृहस्वामिनी' कहा जाता हैं। क्या हमने कभी इस विरोधाभास के बारे में सोचा हैं? पहले जब पत्नी पति को खत लिखती थी तो अंत में लिखती थी आपकी दासी! एक तरफ पत्नी खुद को ही दासी मानती हैं तो दूसरी तरफ पति उसे गृहस्वामिनी कहता हैं! एक ही समय में पत्नी दासी और गृहस्वामिनी दोनों कैसे हो सकती हैं? सबसे बड़ी गौर करने वाली बात यह हैं कि क्या दासी और स्वामी में प्यार और आत्मिक संबंध संभव हैं? पति-पत्नी का रिश्ता बहुत ही आत्मिक, पवित्र और जन्मजन्मांतर का होता हैं ऐसा हम मानते हैं। इतने पवित्र रिश्ते को दान शब्द से जोड़ कर क्या हम उसे कलुषित नहीं करते? दान शब्द के भीतर किसी वस्तू को मुफ़्त में पा जाने की जो खुशी है वह कन्या की गरिमा को कम करती है और उस संवेदनशीलता को धक्का पहुंचाती है जिसमें दो शरीर दो आत्माएं सारे बंधन तोड़ कर एक होना चाहती है।
• जब 'गौ-दान का मतलब गाय का दान' होता हैं, तो 'कन्यादान का मतलब कन्या का दान' क्यों नहीं होता?
कुछ लोगों का कहना हैं कि कन्यादान का मतलब कन्या का दान नहीं होता! कन्यादान का वास्तविक अर्थ हैं जिम्मेदारी को सुयोग्य हाथों में सौंपना। मतलब यह कि अब तक कन्या के भरण-पोषण, विकास, सुरक्षा इन सभी बातों की जिम्मेदारी कन्या के माता-पिता की थी, अब वह ज़िम्मेदारी वर की हो गई हैं। इस तरह कन्यादान का वास्तविक अर्थ हैं जिम्मेदारियों का हस्तांतरण। मैं इन लोगों से पूछना चाहती हूं कि जब गौदान याने गाय का दान, अन्नदान याने अन्न का दान, नेत्रदान याने नेत्र का दान और देहदान याने देह का दान होता हैं तो फ़िर सिर्फ़ कन्यादान का मतलब कन्या का दान कैसे नहीं हुआ? अब चूंकि कन्या कोई वस्तु नहीं हैं और पढ़े-लिखे लोगों ने इस शब्द पर आपत्ति दर्शाना चालू कर दिया हैं इसलिए ये लोग कन्यादान को कन्या का दान न मानते हुए जिम्मेदारियों का हस्तांतरण कह रहे हैं।
• संविधान ने नारी को इंसान समझा हैं।
हमारे संविधान ने भी नारी को एक इंसान समझा हैं न की कोई दान देने योग्य वस्तु! इसलिए ही शादी के बाद भी कानूनन पिता की संपत्ति में बेटी का अधिकार होता हैं। क्या किसी दान में दी गई या ली गई वस्तु को इस तरह का कोई अधिकार मिल सकता हैं? कितने विरोधाभासों के बीच जीते हैं हम! एक तरफ हम बेटी और बेटा को एक समान कहते है इन्हें संपत्ति में समान अधिकार देते हैं और दूसरी ओर बेटी को वस्तु समझ कर दान भी कर देते हैं।
• संविधान ने नारी को इंसान समझा हैं।
हमारे संविधान ने भी नारी को एक इंसान समझा हैं न की कोई दान देने योग्य वस्तु! इसलिए ही शादी के बाद भी कानूनन पिता की संपत्ति में बेटी का अधिकार होता हैं। क्या किसी दान में दी गई या ली गई वस्तु को इस तरह का कोई अधिकार मिल सकता हैं? कितने विरोधाभासों के बीच जीते हैं हम! एक तरफ हम बेटी और बेटा को एक समान कहते है इन्हें संपत्ति में समान अधिकार देते हैं और दूसरी ओर बेटी को वस्तु समझ कर दान भी कर देते हैं।
• आज की नारी खुद की ज़िम्मेदारी खुद उठा सकती हैं।
चलिए, हम एक बार यह मान भी ले कि कन्यादान का मतलब जिम्मेदारियों का हस्तांतरण! तो प्राचीन काल में महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चारदिवारी तक सीमित होने से और उनकी अपनी कोई आय नहीं होने से जिविकोपार्जन हेतु वे पुरुषों पर आश्रित थी। अत: उनकी ज़िम्मेदारी का हस्तांतरण ज़रुरी था। लेकिन आज की नारी तो अपनी ज़िम्मेदारी खुद उठा सकती हैं फ़िर यह ज़िम्मेदारी का हस्तांतरण क्यों? वैसे भी कोर्ट मैरेज में कन्यादान नहीं होता फ़िर भी वो शादी वैध कहलाती हैं न! तो फ़िर नारी को एक वस्तु मान कर अपमानित करनेवाली इस रस्म की आज भी जरुरत क्यों हैं?
यदि नारी को समाज में उसका उचित स्थान दिलाना हैं...यदि पुरुष और नारी को हम संसार रुपी रथ के दो पहिए मानते हैं...यदि नारी एक वस्तु न होकर वो भी पुरुषों की तरह एक इंसान हैं...तो कृपया इस रस्म के बारे में एक बार सोचिएगा जरुर...
Keywords: kanyadaan, women empowerment in hindi, superstitious beliefs, blind belief, religious, nari,
तथ्यपरक आलेख.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-03-2017) को "फूल और व्यक्ति" (चर्चा अंक-2906) (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।
हटाएंaap daan ka vaastvik arth hi nhi jaanti ...daan Khushi ka hota h naa ki cheezon kaa...
हटाएंबहुत अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंबहोत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है ये , ऐसी Sensitive issues पे बात करना या सवाल उठाना आसान नाही होता,आपकी साहस को Salute.
जवाब देंहटाएंI am totally agree with the points you have covered here. These are very much logical.
Bilkul sahi kaha aapne.ham bas koi bhi pratha sadiyo se chali aa rahi hai isiliye karte jate hai.uske piche karne ka logic nahi dekhte.ek bahut hi vicharniya mudda hai ye.
जवाब देंहटाएंअवश्य है!
जवाब देंहटाएंकन्या न दान देने की वस्तु है न ही उसका हस्तांतरण ही उचित है ....कई बार वह मायके में ही आर्थिक सहयोग भी करती है....
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण विषय पर विचारणीय आलेख....
बहुत सुन्दर सार्थक पहल....
Great Blog Post.Thanks for publishing. I hope you will like my tourism post about Mussoorie http://www.indiatourfood.com/2018/03/india-backpacking-adventuretraveling-mussoorie-hillstation-centralindia.html
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार लेख ज्योति जी
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दांडी मार्च कूच दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, हर्षवर्धन।
हटाएंसुंदर विचारणीय लेख.....
जवाब देंहटाएंVery well written article ��
जवाब देंहटाएंआदरणीय ज्योति जी नमस्कार
जवाब देंहटाएंआपके लेख सरहानीय एवं , विचारणीय हैं
वास्तव में
आज के युग में स्त्री ,पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है ,समस्त समाजिक ज़िम्मेवारियाँ सम्भाल रही है
क्या वास्तव में इस युग में कन्यादान की आव्य्श्कता है
कन्या दान का नहीं अभिमान का विषय है ।
इस टिप्पणी को ब्लॉग के किसी एडमिन ने हटा दिया है.
जवाब देंहटाएंसॉरी, आपकी टिप्पणी गलती से हट गई हैं।
हटाएंजिस तरह से आप ने कन्यादान को कटघरे में खड़ा किया
जवाब देंहटाएंबहुत जल्द शादी जैसा बंधन भी अन्याय लगने लगेगा।
क्या जरूरत है इस बंधन की गुलाब का शौक रखनेवाले काँटों से नहीं डरते।
इस तरह तो कागज पर लिखित विवाह भी करारनामा ही है जैसे प्रॉपर्टी का किया जाता है।
शादी जैसे पवित्र बंधन की उत्पत्ती विद्वानों द्वारा की गई और
उनकी सोच पर प्रश्न चिन्ह लगा कर आज समाज खुद को महाविद्वान साबित कर रहा है।
नीतु जी,आज समाज में विवाह के कारण ही परिवार जैसी संस्था टिकी हुई हैं। उसके औचित्य पर सवाल ही नहीं उठा सकते। यदि विवाह की रस्म ही नहीं हुई तो हमारा सामाजिक ढाचा पूरी तरह चरमरा जाएगा।
हटाएंमैंने यह कभी नहीं कहा कि हमारी सभी पुरानी परंपराए गलत हैं। जो आज के समय के अनुसार सही हैं उनका हमें पालन करना चाहिए औए जो सही नहीं हैं उन्हें समयानुसार या तो फेरबदल करना चाहिए या बंद करना चाहिए।
लड़की कुदरत की सबसे नायाब देन है
हटाएंलड़की को लोग पराई अमानत समझकर ही पालते है
और कन्यादान करके माँ बाप उस ऋण से मुक्त होते है
उनका यह अधिकार नहीं छीनना चाहिए
महत्वपूर्ण विषय पर सुन्दर सार्थक पहल ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ।
नमस्कार ज्योति जी...जिस विषय को आपने चिन्हित किया उसका जीता जागता उदाहरण हूँ मैं। आज से 30 साल पहले मैंने स्वयं की शादी में अपना कन्यादान होने से रोका था। एक लड़की वस्तु नहीं है कि उसका दान किया जाए। मैं पूर्णतया आपसे सहमत हूँ। आपको बहुत बहुत साधुवाद
जवाब देंहटाएंनीतू ठाकुर जी...हमारे रीति रिवाज एवं परम्पराएं समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए बने थे किन्तु वो जब बनाए गए होंगे तब उस समय की परिस्थिति, वातावरण एवं समय की क्या आवश्यकता रही होगी ये तो हम लोग नहीं जानते। ये तो प्रकृति का शाश्वत नियम है जो आज है वो कल नहीं रहेगा। क्या आज के परिप्रेक्ष में नारी को वस्तु के रूप में स्वीकार किया जा सकता है ? अगर ऐसा है तो फिर इसका तात्पर्य तो यही निकलता है कि नारी आज भी मात्र एक वस्तु है।
नीलिमा जी, आज से 30 साल पहले आपने इतना हौसला दिखाया इसके लिए सचमुच आप बधाई की पात्र हैं। मैं आपके साहस की दाद देती हूं। बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी ...इस दिशा में प्रयास निरन्तर जारी है। सागर में बूंद बराबर सफलता भी मिली है। हौसला अफज़ाई के लिए शुक्रिया
जवाब देंहटाएंअगर समय मिले तो मेरे blog पर ज़रूर आईएगा।
https//:neelimakumar.blogspot.com