जब दूसरे धर्म के लोग अपने त्यौहारों पर अपनी मनमानी करते हैं...अपने त्यौहार अपने तरीके से मनाते हैं...तो सिर्फ़ हिंदुओं के त्यौहारों पर ही हरदम सवाल क्यों उठायें जाते हैं?
दोस्तो, दिवाली आने वाली हैं...आजकल जैसे ही कोई हिन्दू त्यौहार आने वाला होता है, सोशल मीडिया, जैसे कि फेसबुक और व्हाट्सएप आदि पर हिंदुओं के त्योहारों पर निशाना साधा जाता हैं। ज्यादातर हिंदुओं को हमेशा यह शिकायत रहती हैं हमारे देश में अमूमन हिंदुओं के त्योहारों और मान्यताओं पर ही निशाना क्यों साधा जाता है? जब दूसरे धर्म के लोग अपने त्योहारों पर अपनी मनमानी करते हैं...अपने त्यौहार अपने तरीके से मनाते हैं...तो सिर्फ़ हिंदुओं के त्योहारों पर ही सवाल क्यों उठाये जाते हैं? चाहे होली हो, नवरात्रि हो, दीवाली या फिर गणेश चतुर्थी। कुछ लोग हर बार हमारी ही परंपरा की आलोचना क्यों करने लगते हैं? जबकि बाकी के धर्मों में भी कुरुतियां हैं...लेकिन कोई उन कुरीतियों पर कुछ भी क्यों नहीं बोलता या लिखता हैं?
जैसे दीवाली पर पटाखे छोड़ना प्रदूषण है पर ईसाई नव वर्ष पर आतिशबाजी जश्न है! होली पर पानी बर्बाद होता है लेकिन.. ईद पर जानवरों की क़ुर्बानी धर्म है! नवरात्रि पर 10 बजे के बाद गरबा खेलने से ध्वनि प्रदूषण होता हैं, पर मोहरम की रात ढोल ताशे कूटना और नववर्ष की रात जानवरों की तरह 12 बजे तक बाजे बजाना धर्म है!! करवा चौथ और नाग पंचमी पाखंड है वहीं ईसा का मर कर पुनः लौटना गुड फ्राइडे वैज्ञानिक है!!!
क्या आपने कभी इस बारे में गहराई में जाकर सोचा हैं कि सिर्फ़ हिंदुओं के त्योहारों पर ही सवाल क्यों उठाये जाते हैं? इसके दो कारण हैं...
पहला कारण-
भारत में बाकी धर्मों की तुलना में हिंदुओं की संख्या बहुत ज्यादा हैं। हिंदु ज्यादा होने से उनकी हर क्रिया-प्रतिक्रिया का देश पर क्या असर होता हैं यह समझने के लिए हमें पहले नीचे दिए हुए आकड़ों पर नजर डालनी होगी। आइए, जानते हैं की 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में विभिन्न धर्मों के लोगों का प्रतिशत क्या हैं और उन में साक्षर लोगों का अनुपात क्या हैं…
धर्म जनसंख्या का प्रतिशत साक्षरता का प्रतिशत
• हिंदु 79.8 63.6
• मुस्लिम 14.23 57.3
• सिख 1.72 67.5
• ईसाई 2.3 74.4
• जैन 0.4 86.4
ये आंकड़े बताते हैं कि भारत में हिंदुओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा 79.8 प्रतिशत हैं। इसका मतलब ये हैं कि हिंदु जो भी कार्य करते हैं उसका असर बड़े पैमाने पर होगा। इसलिए हम हिंदुओं को, हमारा हर कदम बहुत सोच-समझ कर उठाना होगा ताकि हमारे किसी भी कार्य से देश को आर्थिक हानि न हो, प्रकृति को नुकसान न हो और संपूर्ण मानवता को नुकसान न हो! उदाहरणार्थ सवाल उठाया जाता हैं कि यदि दीवाली पर पटाखे छोड़ने से वायु प्रदूषण होता हैं तो ईसाई नव वर्ष पर आतिशबाजी करने से वायु प्रदूषण क्यों नहीं होता? क्योंकि वायु तो ये भेदभाव नहीं करती कि पटाखे कौन से धर्म के लोगों ने छोड़े! पटाखे किसी भी धर्म के लोगों ने छोड़े हो, वायु प्रदूषण तो होगा ही! लेकिन हम यहां पर यह बात भूल जाते हैं कि भारत में ईसाईयों की जनसंख्या सिर्फ़ 2.3% हैं जबकि हिंदुओं की जनसंख्या 79.8% हैं! अब आप ही बताइए कि वायु प्रदूषण कब ज्यादा होगा दीवाली पर कि नववर्ष पर? एक आंकड़े के अनुसार हमारे देश में हर साल 7 लाख से ज्यादा लोग वायु-प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण मौत की आगोश में चले जाते हैं। अत: यदि वायु प्रदूषण से बचना हो तो हम हिंदुओं को अपनी हर क्रिया पर दूसरे धर्मों के लोगों की तुलना में ज्यादा ध्यान देकर अपनी मौज़-मस्ती में कमी लानी होगी ताकि हम खुद शुद्ध वायु में सांस ले सके!!
इसी तरह नवरात्रि और गणेश जी पर नदियों में पूजा सामग्रियों को डालने से और मूर्तियों के विसर्जन से नदियों और तालाबों का जल प्रदूषित होता हैं। क्या इस कथन में सच्चाई नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि गंगा जिसे हम और आप 'माँ' कहते हैं उसकी गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित नदियों में होती हैं। हर साल दुर्गा पूजा के अंत में करीब 15 हजार मूर्तियां हुगली में विसर्जित की जाती हैं। जब सिर्फ़ हुगली नदी में 15 हजार मूर्तियां विसर्जित की जाती हैं तो सोचिए पूरे देश में कितनी मूर्तियां नदी या तालाबों में विसर्जित की जाती होगी? प्रदूषित जल का सबसे भयंकर प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, संपूर्ण विश्व मे प्रतिवर्ष एक करोड़ पचास लाख व्यक्ति प्रदूषित जल के कारण मृत्यु के शिकार हो जाते हैं तथा पांच लाख बच्चे मर जाते हैं। भारत में प्रति लाख लगभग 360 व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। ये सब आंकड़े देखने के बाद भी क्या कोई भी समझदार हिंदु यह कह सकेगा कि हमें नवरात्रि और गणेश जी पर नदियों में पूजा सामग्री और मूर्तियां विसर्जित करनी चाहिए? क्या यह हमारी आस्था का घिनौना रुप नहीं हैं? जब लोग किसी पुल के ऊपर से ही भगवान गणेश जी या दुर्गा जी की मूर्तियों का विसर्जन कर आते हैं, तब उनकी श्रद्धा कहां जाती हैं?
दूसरा कारण-
कुछ हिंदु जागरुक हैं और लकीर के फ़क़ीर नहीं हैं!!
सोचिए, किसी एक कक्षा में सौ बच्चे हैं। उन सौ बच्चों में शिक्षक से सवाल सिर्फ़ दो-चार बच्चे ही पूछते हैं...क्यों? पाठ्यक्रम एक हैं...पढ़ाने वाले शिक्षक एक हैं...तो फ़िर सिर्फ़ दो-चार बच्चे ही सवाल क्यों पूछते हैं? कहा जाता हैं कि सवाल वो ही लोग करते हैं जिनमें सोचने-समझने की शक्ति हैं। सौ बच्चों में से सोचने समझने की शक्ति जिन दो-चार बच्चों में होगी, वो ही बच्चे सवाल पूछेंगे। मतलब ये कि किसी भी बात पर सवाल करने का संबंध सीधे-सीधे सवाल करने वाले की सोचने-समझने की शक्ति पर, उसकी योग्यता पर और उसकी शिक्षा पर निर्भर हैं। मुस्लिम लोगों (57.3%) की तुलना में हिंदु लोगों (63.6) में साक्षरता का प्रमाण ज्यादा हैं। मतलब हिंदुओं में साक्षरता का प्रमाण मुस्लिमों से ज्यादा होने से उनकी सोचने-समझने की शक्ति ज्यादा हैं। हिंदुओं में साक्षरता का प्रमाण सिख, ईसाई और जैन लोगों की तुलना में कम ज़रुर हैं लेकिन हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे जो भी हिंदु बहन-भाई साक्षर हैं, वे जागरुक हैं और लकीर के फ़क़ीर नहीं हैं! वे कुएँ के मेंढक नहीं बन रहे हैं। हमें यह समझना होगा कि हिंदु त्योहारों पर सवाल उठाने वाले असल में बहुत हिम्मत वाले लोग हैं!! समाज का और यहां तक की परिवार वालों का भी विरोध सहन करके वे लोग, अंधभक्ति से हमारा, पूरी मानवता का और प्रकृति का जो नुकसान हो रहा हैं उसके लिए हमें सचेत कर रहे हैं! जो मान्यताएं गलत हैं उन्हें दोष देने वाले हमारी मान्यताओं पर सवाल नहीं उठा रहे! वे हमें सही और गलत क्या हैं यह समझा रहे हैं। जैसे कि पटाखों से वायु प्रदूषण होगा, नदियों में पूजा सामग्री और मूर्तियां विसर्जित करने जल प्रदुषण होगा, सावन में शिवलिंग़ पर दूध चढ़ाने की बजाय उस दूध से ज़रूरतमंदों की भूख मिटाई जा सकती हैं आदि।
शायद आप लोगों के मन में यह सवाल आ रहा होगा कि बाकी धर्मों में क्या साक्षर लोग नहीं हैं? क्या बाकी धर्मों मे कुरुतियां नहीं हैं? फ़िर उन धर्मों के लोग उन कुरीतियों के बारे में बात क्यों नहीं करते? वे लोग अपने धर्म के त्योहारों की कुरीतियों का विरोध क्यों नहीं करते? मुझे लगता हैं कि इसका जबाब यहीं हैं कि बाकी धर्मों के लोगों की संख्या ही भारत में कम हैं इसलिए यदि कुछ सुधारवादी लोग कुरीतियों का विरोध करते भी होंगे तो उनकी आवाज़ जनता तक पहुंच ही नहीं पाती होगी। और शायद ज्यादातर लोग लकीर के फ़क़ीर ही बने हुए हैं। वैसे भी सहमति में सर हिलाना सहज कार्य हैं, उसके लिए सोचना नहीं पड़ता लेकिन यदि किसी बात का विरोध करना हो तो उसके लिए गहराई में जाकर अध्ययन करना पड़ता हैं। वैसे भी यदि कोई कुएं का मेंढक बने रहना चाहते हैं, तो हम भी उनकी बराबरी में कुएं के मेंढक तो नहीं बन सकते न? सबसे बड़ी बात बाकी के धर्म के लोगों ने अपने धर्म की कुरीतियों का विरोध कभी किया ही नहीं ऐसा नहीं हैं। जैन धर्म के भगवान श्री रजनीश जिन्हें ओशो के नाम से जाना जाता हैं वे खुद जैन होने के बावजूद उन्होंने जैन धर्म में जो कुरुतियां हैं उन कुरीतियों का कड़ाई से विरोध किया था। वे लकीर के फ़क़ीर न बन कर बुराई का विरोध करके अच्छाई को अपनाने तैयार थे।
हमें हमारे उन भाई-बहनों पर गर्व होना चाहिए जो समाज के ताने सह कर भी समाज में जो कुरुतियां सदियों से चली आ रहीं हैं उनके प्रति पूरे समाज को सचेत करने का कार्य कर रहे हैं।
इसलिए जरूरी है कि हमें लकीर के फ़क़ीर न बन कर, अच्छे रीति-रिवाज़ों को यथावत चालू रख कर, बुरे रीति-रिवाज़ों का त्याग कर देना चाहिए। धर्म पर होने वाली बेतुकी बहस को छोड़ कर प्रकृति की रक्षा हेतु सोचना चाहिए क्योंकि प्रकृति हैं तो हम हैं और हम रहेंगे तभी तो धर्म रहेगा!!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-10-2019) को " सभ्यता के प्रतीक मिट्टी के दीप" (चर्चा अंक- 3496) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।
हटाएं" वैसे भी यदि कोई कुएं का मेंढक बने रहना चाहते हैं, तो हम भी उनकी बराबरी में कुएं के मेंढक तो नहीं बन सकते न? "- आप के आलेख की ये पंक्ति पूरे आलेख पर वजनी है। आपकी सोच और इस आलेख की सारी कथनों को नमन। बहुत ही गहन चिंतन-मनन के बाद ये सोचनीय और विचारनीय मंथन आप साझा कर पाई है।
जवाब देंहटाएंहम कम से कम अपनी युवा पीढ़ी को तो अवश्य इसके लिए प्रेरित करें। क्योंकि हमारे पीछे ही यहाँ रहना है। अंधपरम्परा के नाम पर होने वाले कुत्सित क्रियाकलाप हमें प्रतिबंधित करनी ही चाहिए, चाहे वो किसी भी संप्रदाय का हो। चाहे वो बलि हो या क़ुर्बानी। आवाज तो कम से कम निकलनी ही चाहिए ... भले वो बलिवेदी पर गर्दन कटते वक्त की निरीह की आवाज़ जैसी ही हो ... मौन रहने और ऐसी बेतुकी बातों को हवा देने से तो बेहतर है ....
इतनी सारगर्भित टिप्पणी और हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, सुबोध भाई।
हटाएंबहुत अच्छी जागरूक कराती प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुभ दीपावली!
बहुत सुंदर, गहन चिंतनपरक लेख बहन, सादर
जवाब देंहटाएंSochne ko majboor karti hui bahut hi vicharniya post hai.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही बात कही है आपने ज्योति जी !
जवाब देंहटाएंBahut hi sunder sochne wali post hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक चिन्तनपरक और सारगर्भित लेख लिखा है आपने ज्योति जी !
जवाब देंहटाएंपूरे तर्क और सटीक आँकड़ों के साथ विश्लेषण किया है त्यौहार के नाम पर धर्म के नाम पर पर्यावरण को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए...
उत्कृष्ट सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं आपको....
आभार
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा आपने ज्योति बहन | हिन्दू हों या कोई और सबसे पहले समाज से कुरीतियों और अन्धविश्वास से दूर जाना और पर्यावरण को सुधारना ही लक्ष्य होना चाहिए | आज के दौर में ना तो रावन जलाना और ना गणेश और दुर्गा विसर्जन के नाम पर जलधाराओं को मलिन करना सही है | आने वाली पीढ़ियों को क्या सौंपेंगे हम ? सच है आज इन सब चींजों पर चिंतन जरुर होना चाहिए | सारगर्भित लेख के लिए हार्दिक शुभकामनायें |
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 23 जुलाई 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आंखें खोलने वाली रचना
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