लकड़ी की राख का फर्श से अर्श तक का रोमांचक सफर कि कैसे वो गंदी पन्नी से कांच के चमचमाते शोकेस में पहुंची! wood ash का बहुत ही मजेदार interview...
एक बार मैं मॉल में घूम रही थी। अचानक मेरी नजर कांच के चमचमाते शोकेस में रखें एक आकर्षक पैकिंग की ओर गई। उत्सुकतावश मैं ने पैकेट पर लिखा पढ़ा 'wood ash'। मन ही मन मैं अचंभित हो गई 'wood ash', और वो भी इतने आकर्षक पैकिंग में! इतने में कहीं से गाने की आवाज सुनाई दी,"आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे, आज मैं आगे, जमाना है पीछे..."
मैं ने आजू बाजू में नजर दौड़ाई। लेकिन मॉल में के लोगों को देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि कोई गाना गा रहा हो। वैसे भी मॉल की दुकानों में गाना कौन गाता है? शायद ये मेरा भ्रम होगा ऐसा सोचकर मैं उस पैकेट पर लिखा पढ़ने लगी। जैसे कि लकड़ी की राख कौन से कंपनी की है, उसमें राख कितनी है और उसकी कीमत क्या है आदि।
ये क्या फ़िर से कानों में वहीं आवाज गूंजने लगी, "आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे, आज मैं आगे, जमाना है पीछे..."।
मुझे अचरज होने लगा कि आखिर ये गाना कौन गा रहीं है, जो दिखाई भी नहीं दे रहीं। आवाज पर से ऐसा कहीं नहीं लग रहा था कि टेप बज रहा हो। इतने में मुझे एहसास हुआ कि अरे, ये आवाज तो wood ash का जो पैकेट मैं ने हाथ मेंं ले रखा है, वहीं से आ रहीं है। जैसे ही मैं गौर से पैकेट को निहारने लगी, पैकेट में से आवाज आई, "इधर उधर क्या देख रहीं हो? मैं wood ash ही गाना गा रहीं हूं।''
मैं- "तुम लकड़ी की राख और गाना गा रहीं हो?"
लकड़ी की राख- "हां, मैं ही यह गाना गा रहीं हूं। वो क्या है कि आप मुझे इतने गौर से देख रहीं थी कि खुशी से मैं गाने लगी, "आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे..."
मैं- "वा...व्व...क्या बात है! कूड़ा-करकट से लेकर एकदम मॉल की ऊंचाइयों को छूने का तुम्हारा सफ़र देखकर मैं तुम्हारा एक interview लेना चाहती हूं।"
लकड़ी की राख- "मेरा interview लेकर आप क्या करेगी?"
मैं- "मैं एक ब्लॉगर हूं। मैं अपने ब्लॉग "आपकी सहेली" के पाठकों को तुम्हारी कामयाबी से रूबरू करवाना चाहती हूं। क्या तुम मेरे कुछ सवालों का जबाब दोगी?"
लकड़ी की राख- "हां, हां...क्यों नहीं। पूछिये क्या पूछना चाहती है आप?"
मैं- "कांच के चमचमाते शोकेस में खुद को देखकर तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है?"
लकड़ी की राख-"मुझे लगता है कि इंटरव्यू लेने वाले सभी इंसान एक ही थाली के चट्टे-बट्टे होते है।"
मैं- "क्या मतलब?"
लकड़ी की राख- "मतलब ये कि इंटरव्यू लेने वाले बाढ़ के पानी में डूब रहे इंसान से पूछते है कि डूबते हुए तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है? जलकर आत्महत्या करनेवाले से पूछते है कि जलते हुए तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है? अरे भाई, डूबते हुए इंसान को या जलते हुए इंसान को दुःख ही हो रहा होगा! उन्हें खुशी तो नहीं हो रहीं होगी? जब आपने गाने के बोल सुने तो क्या गाने के बोल सुनकर भी आपको एहसास नहीं हुआ कि मैं बहुत खुश हूं?"
लकड़ी की राख का ऐसा जबाब सुनकर मुझे थोड़ी लज्जा महसूस हुई। सच में हम ऐसा ही तो करते है न!
लकड़ी की राख- "अपनी कामयाबी पर हर किसी को खुशी ही होती है, मैडम।"
मैं- "तुम्हारा ये जो फर्श से अर्श तक का सफ़र है, उस बारे में विस्तार से बताओगी?"
लकड़ी की राख- "पहले के जमाने में लोग मेरा बहुत उपयोग करते थे। हर घर में बर्तन मेरी सहायता से ही मांजे जाते थे। ऐसा आपको एक घर भी नहीं मिल पाता था कि जिनके घर में मैं याने राख न हो। सिर्फ़ बर्तन मांजने के लिए ही नहीं तो पेड़-पौधों में फफूंदनाशक और कीटनाशक के रूप में भी मेरा बड़े पैमाने पर उपयोग होता था। लेकिन तब मुझे कोई इज्जत नहीं देता था। घरों में मुझे किसी गंदी सी पन्नी में या टीन-टप्पर के टूटे-फूटे डब्बे में रखा जाता था। और वो पन्नी और डब्बा भी घर के ऐसे कोने में रखा जाता था जहां किसी की नजर न पड़े। तब मुझे अपनी किस्मत पे बहुत रोना आता था। लेकिन सबसे ज्यादा दुःख तब होता था जब लोग मेरा अपमान करते थे।"
मैं- "लोग तुम्हारा अपमान करते थे! मैं कुछ समझी नहीं!"
लकड़ी की राख- "यदि दो इंसानों के बीच लड़ाई हो रही हो तो वो एकदूसरे को धमकी देते हुए कहते थे कि मैं तुम्हें राख में मिला दूंगा! याने खत्म कर दूंगा! मतलब तो यहीं हुआ न कि राख का कोई अस्तित्व ही नहीं है। राख मतलब सब कुछ खत्म!"
मैं-"ऐसा तो आज भी कहा जाता है। अब कोई ऐसा कहता है तो तुम्हें दुःख नहीं होता?"
लकड़ी की राख- "आज भी कई इंसान कहते है कि राख में मिला देंगे। लेकिन मैडम, दुःख तब होता है, जब हम भी अपने आप को कमतर समझते है। आज मैं आत्मविश्वास से भरी हुई हूं। मुझे पता है कि मैं परोपकार के काम में लगी हुई हूं। तो इंसान के कहने मात्र से मैं अपने आप को कमतर मान कर दुःखी क्यों होऊ?"
मैं- "तुम और परोपकार का काम कर रहीं हो? कैसे?"
लकड़ी की राख- "बर्तन मांजते वक्त आप लोग मुझे कितनी बेरहमी से घिसते हो तब क्या मुझे दुःख नहीं होता? लेकिन दुःख सहकर भी मैं बर्तनों को चमकाते आई हूं। खुद को मिटाकर मैं बर्तनों को चमकाती हूं, क्या ये परोपकार नहीं है?"
मैं- "हां, बात तो तुम्हारी सही है। लेकिन आजकल राख से बर्तन कौन माँजता है?"
लकड़ी की राख- "आजकल घरों में सीधे तौर पर मेरा उपयोग बर्तन मांजने में कम होता है। लेकिन आज भी कई ब्राण्डेड कम्पनियां बर्तन मांजने का जो साबुन बना रहीं है उसमें मेरा उपयोग कर रहीं है। और ये बात वो बाकायदा साबुन के ऊपर लिख भी रही है कि फलाना साबुन में राख है, मतलब बर्तन अच्छे से साफ़ होंगे। इसका मतलब तो यहीं हुआ न कि इंसान को अब राख की महत्ता समझ में आ रहीं है।"
मैं- "ये तो कोई बहुत बड़े परोपकार की बात नहीं हुई कि जिसके लिए तुम इतना इतरा रहीं हो!"
लकड़ी की राख- ''मैं सिर्फ़ बर्तन मांजने के ही काम में नहीं आती हूं, तो खेतों में मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए भी लोग मेरा बड़े पैमाने पर उपयोग कर रहे है।"
मैं- ''क्या तुम से मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है? कैसे?"
राख- "मेरे अंदर जो कैल्शियम,पोटैशियम और अन्य माइक्रो न्यूट्रिशन है उससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है। फफूंदनाशक और कीटनाशक तो मैं हूं ही। यदि मैं खुद को मिटाकर इतने सारे काम कर रहीं हूं, तो क्या ये परोपकार नहीं है?"
मैं- "हां, बात तो सही है। लेकिन ये काम तो तुम पहले भी करती थी। फ़िर अभी ऐसा क्या हुआ कि तुम घरों की गंदी जगहों से निकल कर महंगी महंगी पैकिंग में सीधे शोरूमों में पहुंच गई?"
राख- "ये marketing strategy है मैडम। अब बड़ी बड़ी कंपनियां मुझे आकर्षक रूप में पैक कर उनका बड़े पैमाने पर विज्ञापन कर रहीं है। एक किलों राख 125 से 350 रुपए में बिक रहीं है। जैसे ही बड़ी बड़ी कंपनियां अपने विज्ञापनों में किसी चीज को स्थान देने लगती है, आप लोग उस चीज़ के दीवाने हो जाते हो। आप लोगों की इसी मानसिकता के कारण मेरे अच्छे दिन आ गए है। जरा सोचिए, आज भी लाखों इंसान बेघर है। उनके पास टूटी फूटी झोपड़ी भी नहीं है। और मैं राख होकर भी कांच के चमचामते शो केस में रह रहीं हूं। क्या यह मेरे लिए गौरव की बात नहीं है?"
मैं- "हा, सचमुच तुम्हारे अच्छे दिन आ गए है।"
इतना कहकर मैं ने राख को good bye कहा।
मॉल से बाहर निकलते निकलते मैं सोचने लगी कि हम इंसान तो ''अपना टाइम आएगा...अपना टाइम आएगा...'' ऐसा गा गा कर खुद को तसल्ली दे रहे है। और ये राख है जो गा रही है, "आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे, आज मैं आगे, जमाना है पीछे...."
दोस्तों, मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि "आपकी सहेली" की यह 500 वी पोस्ट है। आशा है, मुझे आपका स्नेह, सहयोग और आशीर्वाद यूं ही मिलता रहेगा।
राख से भी इतनी सुंदर मुलाकात की जा सकती है, इस पोस्ट को पढ़कर मालूम हुआ, अद्भुत सोच एवं रचना ,गहन वार्तालाप, नमन शुभप्रभात और ढेरों बधाई हो आपको
जवाब देंहटाएं500 वी पोस्ट की शुभ कामनाएँ ..आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 30 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, यशोदा दी।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2021) को "कंकड़ देते कष्ट" (चर्चा अंक- 3963) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।
हटाएं500वीं पोस्ट की बधाई हो आपको आदरणीया।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई ज्योति जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत रोचक सराहनीय लेख |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सारगर्भित लेखन तथा आपकी 500 वी पोस्ट के लिए ढेर सारी बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं प्रिय ज्योति जी..
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई ज्योति जी ।
सादर।
अद्भुत चिंतन
जवाब देंहटाएं500 वी पोस्ट के लिए ढेर सारी बधाई
500 वी पोस्ट की शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंmust read inspired by jyoti dehliwal मस्तिष्क के बारे रोचक तथ्य
बहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसराहनीय सृजन ज्योति जी - रोचक भी, विचारोत्तेजक भी ।
जवाब देंहटाएंराख का अत्यंत रोचक इंटरव्यू और बेहतरीन विश्लेषण ।
जवाब देंहटाएंसराहनीय ।
सादर।
बड़ा मस्त इंटरव्यू । आज की लोगों की मानसिकता पर अच्छा प्रहार है ।
जवाब देंहटाएंअरे वाह!ज्योति ...बहुत खूब ।राख से इन्टरव्यू बहुत खूब ...।
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