हर इंसान जिंदगी चाहता हैं...थोड़ा सा और जीना चाहता हैं! फ़िर ये आजकल के बच्चों को क्या हो गया हैं जो 'ब्ल्यू व्हेल' जैसे गेम खेल कर अपनी जान देना चाहते हैं?
हर इंसान को जिंदगी में सबसे ज्यादा यदि कोई चीज पसंद हैं, तो वो हैं खुद की जान। जिंदगी की समस्याओं से घबराकर या गंभीर बीमारी से तंग आकर इंसान मुंह से कह तो देता हैं कि ऐसी जिंदगी से तो मौत अच्छी! लेकिन जब असल में मौत सामने आती हैं तो हर इंसान जिंदगी चाहता हैं...थोड़ा सा और जीना चाहता हैं! फ़िर ये आजकल के बच्चों को क्या हो गया हैं जो 'ब्ल्यू व्हेल' जैसे सुसाइड गेम खेल कर अपनी जान देना चाहते हैं? आत्महत्या करना चाहते हैं?
क्या हैं “ब्ल्यू व्हेल गेम”?
सही मायने में यह एक गेम न होकर दो व्यक्ति के बीच का एक प्रकार का चुनौतिपूर्ण सौदा हैं। इसलिए इसे ‘’Blue Whale challenge’’ भी कहा जाता हैं। यह गेम खेलना शुरू करने से पहले प्रशासक को एक निवेदन भेजना पड़ता हैं जिसमें “मैं जिंदगी से तंग आ चुका हूं और मुझे अपना जीवन खत्म करने की इच्छा हैं” ऐसा संदेश लिखा होता हैं। इस गेम को रुस के फिलीप बुदेकिन नाम के 22 साल के लड़के ने बनाया हैं। हालांकि अब उसे रुस के युवाओं को मौत के लिए प्रेरित करने के लिए जेल हो चुकी हैं। मोबाइल, लैपटॉप और डेस्कटॉप पर खेले जाने वाले इस गेम में विभिन्न चुनौतिपूर्ण कार्यों को 50 दिनों में पूरा करना होता हैं। रेजर से हाथ काट “f57’’ बना कर प्रशासक को फोटो भेजना, सुबह 4.30 बजे उठकर प्रशासक की भेजी हुई डरावनी वीडिओ देखना, सबसे उपर की मंज़िल पर जाकर किनारे पर खड़े होना और सुई को अपने हाथ पर बार-बार चुभोना आदि जानलेवा कार्यों से ही इस गेम की शुरवात होती हैं। हर एक कार्य के बाद हाथ पर चाकू से एक निशान बना कर उसकी फोटो प्रशासक को भेजनी पड़ती हैं। अंतिम दिन हाथ पर चाकू से जो निशान बनाए जाते हैं उनसे व्हेल की आकृती बनती हैं इसलिए इसे 'ब्ल्यू व्हेल गेम' कहा गया हैं। अंतिम चुनौतिपूर्ण कार्य ‘आत्महत्या’ ही होता हैं।
क्यों आया चर्चा में “ब्ल्यू व्हेल गेम”
पूरी दुनिया में अब तक 200 से ज्यादा बच्चों ने यह गेम खेलकर आत्महत्या कर ली हैं। भारत में जब 30 जुलै को मुंबई के अंधेरी ईस्ट की शेर-ए-पंजाब कालोनी में 14 साल के मनप्रीत सिंह साहनी ने 5 मंजिले इमारत से कुदकर जान दी तब यह चर्चा में आया। देश की संसद में इस पर बैन लगाने की मांग की गई और मुंबई में इसके खिलाफ बच्चे सड़क पर उतर आए। ऐसे गेम बंद होना चाहिए यह सही हैं लेकिन सवाल यह हैं कि क्या इस एक गेम के बंद होने से बच्चों की आत्महत्या करने की मानसिकता में कमी आएगी? जो बच्चे जिंदगी से उब चुके हैं उन्हें जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी? जरुरत इस बात की हैं कि चाहे कोई कैसा भी और कितना भी मनोरंजक एवं बच्चों को ललचाने वाला गेम बनाए हमारे बच्चे मानसिक दृष्टिकोन से इतने सुदृढ हो कि वे स्वयं ऐसे जानलेवा खेलों से दूर रहे। अत: हमें यह सोचना हैं कि आखिरकार बच्चें क्यों हो रहे “ब्ल्यू व्हेल गेम” के शिकार?
• आज के बच्चे अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं
बच्चे चाहते हैं उनकी बाल सुलभ जिज्ञासाएं कोई सुने...! दिन भर उन्होंने क्या-क्या किया...उनके साथ क्या-क्या हुआ यह सुनने वाला कोई हो...! लेकिन आजकल पैरेंट के पास अपनी व्यस्त जीवनशैली के चलते समय नहीं हैं। ऐसे में बच्चे अंदर ही अंदर टूटने लगते हैं और इंटरनेट पर समय व्यतित करने लगते हैं। इस गेम की शुरवात ही इस स्विकृती के साथ होती हैं कि बच्चे गेम को बीच में नहीं छोडेंगे। अत: एक बार गेम शुरु करने पर उसे बीच में से कैसे बंद करे यह इन बच्चों को समझ में नहीं आता हैं। ऐसा कोई व्यक्ति उन्हें नहीं मिलता जिससे वे अपनी समस्या शेयर कर सके। इसी कशमकश में अनजाने में ये बच्चे आख़िरी चुनौतिपूर्ण कार्य ‘आत्महत्या’ भी कर बैठते हैं! इस समस्या उपाय यहीं हैं कि हमें हमारे बच्चों को भौतिक सुख-सुविधा के साथ-साथ समय देना होगा। हमें हमारे बच्चों के मन में क्या चालू हैं इसकी जानकारी होनी चाहिए। जहां तक संभव हो दिन भर में कम से कम एक बार घर के सभी सदस्य एक साथ भोजन करें। इससे आपस में कुछ बातचीत होगी तो किसके मन में क्या चल रहा हैं इसकी जानकारी मिलती रहेगी। जैसे इसी गेम में हर रोज चाकू से जो निशान बनाना होता हैं वो निशान पूरे 50 दिनों तक किसी को नजर नहीं आता! इस पर से अंदाजा लगाइए कि वो बच्चे अकेलेपन से कितने जूझ रहे होंगे!
• बड़ों की रोक-टोक एवं मार्गदर्शन का अभाव
अति लाड-प्यार के चक्कर में हम बच्चों के दोस्त तो बन गए लेकिन शायद माता-पिता बन रोक-टोक करना भूल गए। नतिजतन बच्चों को सही-गलत का अंतर बतलाने वाला कोई नहीं रहा। इंटरनेट पर क्या पढ़ना चाहिए या क्या देखना चाहिए इसकी समझ उनमें नहीं होती। वास्तव में गूगल हर चीज उगलता ज़रुर हैं लेकिन जीवन जीने का पाठ नहीं पढ़ा सकता! क्या सही हैं और क्या गलत हैं यह गूगल नहीं समझा सकता! यह हर इंसान को खुद को समझना होता हैं। वास्तव में जीवन जीने का पाठ तो दादी-नानी की कहानियों में होता था। दादी-नानी बच्चों को शिक्षाप्रद एवं प्रेरणादायक कहानियां सुनाती थी। जिससे बच्चों का मानसिक विकास सही दिशा में होता था। इंटरनेट पर हर तरह की जानकारी मौजूद होने से बच्चें इसी बात से कंफ्युज है कि क्या सही हैं और क्या गलत। सही पैरेटिंग का मतलब अनुशासन और छूट के बीच संतुलन बनाना हैं। अत: हमें जहां जरुरत हो वहां बच्चों पर रोक-टोक लगा कर उन्हें सही मार्गदर्शन करना होगा।
• अति सुख-सुविधा
हम सोचते हैं कि हमारे बचपन में हम जिन-जिन चीज़ों से वंचित रहें वो सब चीजें हम हमारे बच्चों को मुहैया करवायेंगे। हम बच्चों को किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं होने देंगे। परिणामस्वरुप आज बच्चों के पास इतनी चीजें हैं जितनी चीजों की शायद उन्हें जरुरत भी नहीं हैं! इसी वजह से बच्चों को 'ना' सुनने की और 'ना' कहने की आदत नहीं होती। बचपन से ही हम बच्चों को एक कमरा अलग से दे रहे हैं। अब बच्चा अकेला कमरे में क्या कर रहा हैं यह देखने की फ़ुरसत हमारे पास नहीं होती। इसका परिणाम यह होता हैं कि बच्चा हर दिन अपने हाथ पर चाकू से निशान बनाता हैं और हमें भनक भी नहीं लगती! अतः हमें जागरुक रह कर बच्चों में 'ना' सुनने की और 'ना' कहने की आदत डालनी होगी।
• हाय परसेंट लाने का तनाव
आज हर बच्चा हाय परसेंट लाने के तनाव से ग्रस्त हैं। हर पैरेंट्स को अपने बच्चे के मार्क्स सौ प्रतिशत ही चाहिए। चाहे बच्चे का मानसिक स्तर उस लायक हो या न हो। इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए बच्चे सोचते हैं कि चलो थोड़ी देर गेम खेल लेते हैं। बच्चों को ये समझ नहीं होती कि कौन सा गेम अच्छा हैं और कौन सा गेम जानलेवा हैं। अनजाने में वे इसका शिकार हो जाते हैं। अतः हमें बच्चों से अनुचित अपेक्षाएं न पाल कर बच्चे के मानसिक लेवल हिसाब से अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना होगा। ताकि बच्चें तनाव में न आएं।
• साहसिक जिंदगी जीने की लालसा
आज के बच्चे साहसिक जिंदगी जीना चाहते हैं। डर तो उनके शब्दकोश में ही नहीं हैं। बच्चे यह नहीं समझ पाते कि किसी भी चीज का, किसी भी अॅडवेंचर का मजा वे तभी ले पायेंगे जब वे जीवित रहेंगे। हमें बच्चों को जीवन का मुल्य समझाना होगा।
सुचना-
यह मेरे अपने विचार हैं। ज़रुरी नहीं कि आप इनसे सहमत ही हो! आपको क्या लगता हैं कि आखिरकार बच्चें क्यों हो रहे “ब्ल्यू व्हेल गेम” के शिकार? और ऐसे गेम से बच्चों को बचाने हमें क्या करना चाहिए?
बहुत सुंदर एवं प्रेरक आलेख ज्योति जी।
जवाब देंहटाएंकोमल मन बच्चों को सजाना सँवारना हम बड़ों की जिम्मेदारी है पर अफसोस तो इस बात की है आज बड़े लोग ही इंटरनेट मे स्वयं को डुबो देते है वे बच्चों को का मार्गदर्शन किस प्रकार कर पायेगे।
स्वेता, बिल्कुल सही कहा! आज बड़े लोगों को ही इंटरनेट की लत लग चूकी हैं ऐसे में यह गंभीर समस्या हैं कि बच्चों को कैसे नियंत्रित करेंगे। इतनी त्वरित टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-08-2017) को "वृक्षारोपण कीजिए" (चर्चा अंक 2691) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद,आदरणीय शास्त्री जी।
हटाएंसही कहा ज्योति जी आपने ....बच्चे चाकू से लम्बे समय तक हाथ में निशान बनाते रहे और घर पर किसी को पता तक नहीं.... बच्चों के लिए वक्त निकाल कर ही बच्चों की मानसिकता को समझा जा सकता है.....
जवाब देंहटाएंकम्प्यूटर गेम नहीं बच्चों को आउटडोर गेम की तरफ प्रोत्साहित करना चाहिए ....तभी उनका सर्वांगीण विकास होगा...
बहुत बढिया आलेख...
Bahut accha article....aajkal ese articles ki hi jarurat hai jo logo ko jagruk kar sake....baccho ka mann komal hota hai isiliye ese Game bahut khatarnaak hain unke liye.....
जवाब देंहटाएंBahan ji Aapne Sach Me Samaj Ko Is games Se Agah kiya Hai. taki Koi Bachaa Isaki Chapet me Na Aa Jaye.
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस : भीष्म साहनी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंहर्षवर्धन,मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबच्चों के साथ ताल-मेल बैठा कर ,उनका विश्वास जीत कर परिवार के साथ जोड़ कर रखना बहुत ज़रूरी है - उन्हे अपने निर्णयों में बड़ों का सहयोग और सम्मति लेने की चाह बनी रहे .
जवाब देंहटाएंज्योति जी आपने अपने लेख के माध्यम से बहुत सही प्रश्न उठाये हैं | एक ओर जहाँ माता - पिता की गलती है की वो बच्चों को मोबाइल के हवाले कर के निश्चिन्त हो जाते हैं | और ये देखते ही नहीं की वो क्या कर रहे हैं | वहीं दूसरी ओर आजकल की पीढ़ी ज्यादा डेयरिंग हो गयी है | जो हर समय कुछ नया एडवेंचरस करना चाहती है | और ऐसे जोखिम लेने को तैयार हो जाती है | जो भी हो ब्लू व्हेल या आत्म हत्या को उकसाने वाले ऐसे कोई भी खेल हो सब पर प्रतिबंध लगाना चाहिए | इस दिशा में जागरूकता फैलाने के लिए आप का शुक्रिया ....... वंदना बाजपेयी
जवाब देंहटाएंयदि हम सबके बच्चे ऐसे गेम के शिकार हो रहे है इसका सीधा सा अर्थ यह की अब माता पिता के पास अपने बच्चो के लिए समय नही रहा है . ऐसा सिर्फ पैसे की वजह से हो रहे है, क्यू की बचपन में हम अगर दो मिनट लेट होते थे तो घर पर डाट सुनना पड़ता था उअर आज आप क्या कर रहे है कोई नही पूछने वाला . किसी के पास वक्त ही नही है ...... इसका कारण कही न कही हमारा एकल परिवार होना भी जिम्मेदार है ........
जवाब देंहटाएंराकेश, आज माता-पिता बच्चों को सुख-सुविधा के सभी भौतिक साधन मुहैया करा रहे हैं लेकिन बच्चों को इन साधनों से भी ज्यादा यदि किसी चीज की जरुरत हैं तो वो हैं माता-पिता का थोड़ा सा साथ में बिताया हुआ समय। यहीं पर आज के माता-पिता कम पड़ रहे हैं।
हटाएंधन्यवाद ज्योंति जी इस शानदार लेख के लिए । बिल्कुल सही कहा है आपने कि हमे बच्चों को अॅडवेंचर का सही अर्थ समझाने की जरूरत है । साथ ही हमे उनका विश्वास जीतने की भी जरूरत है ताकि बच्चे हमसे हर बात खुलकर share कर सके ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअकेले पन की प्रवृति ... बड़ों का मार्गदर्शन न होना ... अत्यधिक संम्पन्नता ... ऐसे अनेक मानसिक कारण हैं और कुछ साइको लोग इस बात का फायदा उठाते हैं ... और ऐसे खेलोंका निर्माण करते हैं जो ऐसी घटनाओं को प्रेरित करता है ... आँखें खोलने वाला है आपका आलेख ... बच्चों के साथ खुल के बात करना ... उन्हें सही अर्थ बताना जीवन का ... आज की जरूरत है ...
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा दिंगम्बर जी।
हटाएंज्योतिजी,आज आपका यह लेख पढ़कर कुछ शेयर करने का मन कर रहा है । मुझे हमेशा यही लगता था कि मैं इंटरनेट और फेसबुक जैसे अभिव्यक्ति के माध्यमों से बहुत देर से जुड़ी। पर अब लगता है कि अच्छा ही किया मैंने। अपने बच्चे को पूरा समय देकर उसके साथ एक मजबूत रिश्ता बनाना ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए ।
जवाब देंहटाएंमीना, हम यदि फेसबुक आदि से जुड़े इसका मतलब हम हमारे बच्चों से दूर है यह नहीं होता। हाँ, यदि हम इनके एडिक्ट हो जाए तो यह गलत हैं। हम सोशल साइट्स का वाजिब और अच्छा इस्तेमाल करते हुए भी अपने बच्चों को पूरा पूरा समय दे सकते हैं।
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जवाब देंहटाएंसामयिक ,विचारणीय लेख।
ज्योति जी ,बच्चों को मानसिक तौर से मजबूत बनाया जाये ।उनको प्रैक्टिकल लाइफ से परिचित कराना चाहिए । Parents को अपने बच्चों के साथ कुछ समय बिताना बहुत जरूरी जिससे वो उनको समझ सकें । उनके मन में क्या चल रहा है ।
जवाब देंहटाएंनीरज श्रीवास्तव
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जवाब देंहटाएंएक बात जो आपने बताई, बहुत ही बढ़िया कटाक्ष किया हैं माता-पिता पर, कि 50 दिन तक क्या उनका ध्यान ही नहीं जाता बच्चे पर, कितना अजीब सत्य हैं यह??
जवाब देंहटाएंमहेश जी, यहीं तो विडंबना हैं कि हम जो भी कर रहे हैं अपने बच्चे के लिए कर रहे हैं ऐसा कहने वाले माता पिता का ध्यान 50 दिनों तक अपने बच्चे की तरफ नही जाता। ऐसे में दोष किसे देंगे,गेम को या माता पिता को?
हटाएंBahut hi behtarin tarike se samjhayaa aapne
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