जानिए, जाने-अनजाने में हम इंसान हमारे भगवान के साथ कितनी नाइंसाफी करते है... जिसे हम पूजते है उसी के साथ नाइंसाफी कैसे करते है?
शिर्षक पढ़कर चौंक गए न? भगवान के साथ नाइंसाफी और वो भी हमारे द्वारा? संभव ही नहीं है!! भई, नाइंसाफी तो बड़ा व्यक्ति छोटे व्यक्ति पर, बलशाली निर्बल पर करता है। हम अदने से इंसान उस सर्वशक्तिमान से नाइंसाफी कैसे कर सकते है? आप सही कह रहें है। लेकिन ये लेख पूरा पढ़ने के बाद मुझे पूरा विश्वास है कि आप भी मेरी बात से सहमत अवश्य होंगे कि जानते-समझते हुए भी हम उस परमपिता के साथ कितनी नाइंसाफी करते है!!!!
हमारे यहां आज भी ज्यादातर घरों में भगवान को भोग लगाए बिना भोजन में जुठ नहीं डालते। मतलब भगवान को भोग लगाए बिना घर का कोई भी सदस्य उस भोजन को ग्रहण नहीं करता। यहां तक कि व्यंजन बनाने के बाद, यह देखने के लिए कि वो अच्छा बना कि नहीं, उसको चखते भी नहीं! ठीक है…. हम हमारे इस्टदेव को हमारा जुठा थोड़े ही खिलाएंगें? लेकिन जरा सोचिए, भगवान को भोग लगाकर हम खाना खाने बैठे। पहला कौर मुंह में डाला...अरे... तुरई या लौकी की सब्जी बनाई थी और वो कडू निकल गई। क्या वो कडू सब्जी हम खाएंगे? नहीं न... क्यों? हमने हमारे इस्टदेव परमपिता भगवान को तो वो कडू सब्जी खिलाई है। जब हमारे भगवान वो कडू सब्जी खा सकते है, तो कायदे से हमें भी भगवान का प्रसाद समझकर ही सहीं, वो कडू सब्जी खानी चाहिए... क्यों नहीं खाते हम वो कडू सब्जी? क्या हमें कभी भी इस बात का थोड़ा सा भी अफसोस होता है कि हमने भगवान को कडू सब्जी खिलाई? क्या हम घर के किसी भी सदस्य को वो कडू सब्जी खिलाएंगे? फिर हमने भगवान को क्यों खिलाई? क्या भगवान के साथ ये बहुत बड़ी नाइंसाफी नहीं है?
कभी-कभी ऐसा होता है कि हमने जो सब्जी बनाई, उसमें नमक डालना ही भुल गए या नमक बहुत ज्यादा हो गया, ऐसे में जब हम भगवान को भोग लगाते है तो उन बेचारे भगवान को तो बिना नमक की या ज्यादा नमक की सब्जी ही खानी पड़ती है न! मजे की बात यह है कि जब हम खूद वह सब्जी खाते है तो हम बिना नमक की या ज्यादा नमक की सब्जी नहीं खाते। हम उस सब्जी को हमारे हिसाब से सुधार कर खाते है। फिर भगवान ने हमारा क्या बिगाड़ा है? ऐसा ही वाक़या मिठाई के साथ भी होता है। क्यों करते है हम उनके साथ यह नाइंसाफी? वो पलटकर हमें कुछ बोलता नहीं इसलिए या भगवान को कडू से कडू सब्जी भी चलती है इसलिए। या फिर भगवान को किसी भी चीज का स्वाद ही पता नहीं चलता इसलिए!
हम भगवान को नारियल चढ़ाकर फिर उसको फोड़ते है। लेकिन नारियल खराब निकल जाता है। तब हम कहते है कि वो नारियल पूरा की पूरा भगवान को चढ़ गया! क्या हमारे भगवान इतने गए-बिते है कि वो ख़राब नारियल भी खा लेंगे? यदि नहीं, तो फिर हम ऐसा क्यों कहते है? क्या यह भगवान के साथ नाइंसाफी नहीं है? कई लोग कहते है कि भगवान असल में थोड़े ही खाते है, इसलिए...! लेकिन हम तो इसी श्रद्धाभाव से पहले भगवान को भोग लगाते है न कि वो खाते है। अत: हमारी यह दलील बिल्कुल खोखली साबित होती है।
घर में यदि कोई भगवान की मूर्ति टूट जाती है, तो हम उसे खंडित मानकर उसकी पूजा करना बंद कर देते है। यदि मूर्ति का एक अंग थोड़ा सा भी टूटा हो तो उसे जोड़ा नहीं जाता बल्कि उसे विसर्जित किया जाता है। क्या यहीं हमारी आस्था है? जिस मूर्ति को हम ईश्वर समझकर पूज रहें थे, उसके थोड़ा सा टुटते हीं, उस मूर्ति में हमारी आस्था भी टूट जाती है। यदि घर के किसी सदस्य के साथ ऐसा ही कुछ हो, तो क्या हम उसका त्याग कर देते है? दुर्घटना में यदि हमारी हड्डी टूट जाए, तो हम खंडित क्यों नहीं होते? हम खुद तो हमारे शरीर में कई नकली अंग लगाकर भी काम चलाते है। फिर जिसे हम ईश्वर मानते है, उस ईश्वर के साथ इतनी नाइंसाफी क्यों?
आजकल सेहत का ख्याल रखते हुए कई घरों में वॉटर फिल्टर का उपयोग किया जाता है। घर के सभी सदस्य वॉटर फिल्टर का ही पानी पीते है। खाना भी वॉटर फिल्टर के पानी से ही बनता है। लेकिन जब भगवान की पूजा के लिए पानी लेने की बात आती है, तो नल, हैंडपंप या कुएं का ताज़ा पानी ही उपयोग में लिया जाता है। इसके पिछे यह तर्क दिया जाता है कि ईश्वर की पूजा करने के लिए बासी पानी का इस्तेमाल कैसे कर सकते है। अब आप ही बताइए, जिस पानी को अशुद्ध मानकर हम उसका उपयोग नहीं करते, वो ही अशुद्ध पानी हम ईश्वर को क्यों चढ़ाते है? क्या यह उस ईश्वर के साथ नाइंसाफी नहीं है??
हम हर गलत काम के लिए ईश्वर को ही दोषी ठहराते है। जैसे,
• पढ़ाई हम खुद नहीं करते और फेल हो गए तो कहते है, "उपरवाले तुने ये क्या किया?"
• गाड़ी तेज हम चलाते है और अपघात हो जाएं तो कहते है, "उपरवाले....."
• सेहत का ख्याल हम नहीं रखते और बिमारीयां हो जाएं तो कहते है, "उपरवाले......."
• तंबाकु, गुटके और शराब का सेवन हम करते है (जबकि इन पर साफ-साफ लिखा होता है कि इन चीजों के सेवन से कैंसर हो सकता है) और कैंसर हो जाएं तो कहते है "उपरवाले......"
आजकल तो ऐसे कार्य जो हम नहीं कर सकते, उसके लिए हम ईश्वर को भी असमर्थ बता देते है। जैसे,
• ईश्वर भी भ्रष्टाचार मिटा नहीं सकता! क्या ईश्वर ने कभी किसी से रिश्वत मांगी? रिश्वत तो हम खूद उसे चढ़ाते है! ईश्वर तो हवा, पानी, धूप सभी को बराबर मात्रा में देते है। क्या हमने कभी देखा है कि ठंड़ के दिनों अंबानी के घर ईश्वर तेज धूप दे रहे है और गरिबों के घर पर बदली छाई हुई है?
• ईश्वर भी महंगाई कम नहीं कर सकता! भई, जब ईश्वर हम से किसी भी चीज के पैसे नहीं लेते तो महंगाई के लिए हम उन्हें दोष कैसे दे सकते है? ईश्वर ने हमें जमीन दी, उसे प्लॉट बनाकर बेचते हम है। ईश्वर ने पानी दिया, उसे बोटल में भरकर बेचते हम है! ईश्वर ने आज तक हमें एक भी चीज नहीं बेची है। तो फ़िर महंगाई के लिए ईश्वर दोषी कैसे?
हम हर गलत काम के लिए ईश्वर को ही दोषी ठहराते है। जैसे,
• पढ़ाई हम खुद नहीं करते और फेल हो गए तो कहते है, "उपरवाले तुने ये क्या किया?"
• गाड़ी तेज हम चलाते है और अपघात हो जाएं तो कहते है, "उपरवाले....."
• सेहत का ख्याल हम नहीं रखते और बिमारीयां हो जाएं तो कहते है, "उपरवाले......."
• तंबाकु, गुटके और शराब का सेवन हम करते है (जबकि इन पर साफ-साफ लिखा होता है कि इन चीजों के सेवन से कैंसर हो सकता है) और कैंसर हो जाएं तो कहते है "उपरवाले......"
आजकल तो ऐसे कार्य जो हम नहीं कर सकते, उसके लिए हम ईश्वर को भी असमर्थ बता देते है। जैसे,
• ईश्वर भी भ्रष्टाचार मिटा नहीं सकता! क्या ईश्वर ने कभी किसी से रिश्वत मांगी? रिश्वत तो हम खूद उसे चढ़ाते है! ईश्वर तो हवा, पानी, धूप सभी को बराबर मात्रा में देते है। क्या हमने कभी देखा है कि ठंड़ के दिनों अंबानी के घर ईश्वर तेज धूप दे रहे है और गरिबों के घर पर बदली छाई हुई है?
• ईश्वर भी महंगाई कम नहीं कर सकता! भई, जब ईश्वर हम से किसी भी चीज के पैसे नहीं लेते तो महंगाई के लिए हम उन्हें दोष कैसे दे सकते है? ईश्वर ने हमें जमीन दी, उसे प्लॉट बनाकर बेचते हम है। ईश्वर ने पानी दिया, उसे बोटल में भरकर बेचते हम है! ईश्वर ने आज तक हमें एक भी चीज नहीं बेची है। तो फ़िर महंगाई के लिए ईश्वर दोषी कैसे?
यह मेरे अपने विचार है। ज़रुरी नहीं कि आप इससे सहमत ही हो। आपको क्या लगता है, क्या वास्तव में हम भगवान के साथ नाइंसाफी करते है?
ईश्वर सर्वशक्तिमान है ऐसा हम कहते हैं और पत्ता पत्ता उसी की वजह से हिलता है, कण कण में उसका वास है, जो वो चाहता है वही होता है.....ऐसा हम कहते हैं......हमारी आस्तिकता......लेकिन ये आस्तिकता भी पूर्ण नहीं है।
जवाब देंहटाएंवर्ना जो शिकायतें हम करते हैं वो भी ईश्वर ही तो हम से करवा रहा होगा
कडु सब्जी ईश्वर ने खाई हमने ही खाई इसमें भी तो उसी की मर्जी व्याप्त होगी
"ऊपरवाले ये तूने क्या किया" ऐसा किसने कहलवाया हमसे.......सर्वशक्तिमान ने ही ना..????
तो नाइंसाफ़ी वाली कोई बात ही नहीं.....जब सबकुछ करने वाला करवाने वाला और कहलवाने वाला वही है...........यहां होती है आस्तिकता पूर्ण
हम नाइंसाफी करते हैं या कर सकते हैं तो सर्वशक्तिमान ईश्वर की सत्ता और शक्ति को चुनौती हो गई।
सोहिल जी, यह बिलकुल सही है कि हमारी इतनी औकात ही नहीं है कि हम ईश्वर के साथ ना इंसाफी कर सके। यदि होती तो यक़ीनन हम उसे भी नही छोड़ते।
हटाएंलेकिन हमारे दैनंदिन क्रियाकलापों में हम जाने अनजाने, अप्रत्यक्ष रूप में ही सही उसके साथ नाइंसाफी कर बैठते है। क्योंकि ये जानते हुए भी ईश्वर एक शक्ति है...हम उसे साधारण मनुष्य की तरह ट्रीट करते है। रिश्वत देते है।
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जवाब देंहटाएंJab hum ye mante hai ki jo bhi karta hai hota hai uper wala hi karta hai toh hum galat ya sahi ki pehchan karne wale kon hote hai agar wo chahta hai ki kadu sabzi ya bina namak wali sabzi us ko bhog mai de toh uski iccha se hi ye ho raha hai so ab baat mandir murti ki aati hai toh hum uperwale ko sarv shaktimaan hai toh usko khandit roop mai nhi dekh sakte isliye hum us murti ko visarjit kar ke nyi murti sthapit karte hai
जवाब देंहटाएंसंजय जी, जो भी कार्य होता है वो उपरवाला करवाता है यह कह कर हम हमारे गलत कृत्यों को सहीं नहीं ठहरा सकते है। उपरवाला हमें कभी भी गलत कार्य करने की प्रेरणा नहीं देता है। ईश्वर ने हमें कार्य करने की स्वतंत्रता दी है...हम जैसा कार्य करेंगे उसी अनुसार हमें उसका फल मिलेगा ऐसा गिता में भी कहा गया है। जब हमें सफलता मिलती है तब हम यहीं कहते है कि ह्में हमारी मेहनत का फल मिला। ईश्वर ने सफलता दिलाई ऐसा बहुत ही कम लोग कहते है।
जवाब देंहटाएंमैं आपकी दूसरी बात से सहमत हूं कि हम हमारे ईश्वर को खंडित रूप में नहीं देख सकते इसलिए विसर्जित कर देते है। लेकिन उस आस्था का क्या हुआ जिसके वशिभुत होकर हम सालों से उस मुर्ति की पूजा कर रहे थे? वो हमारी आस्था भी खंडित ही हुई न?
u have covered some common faults made by human beings, though u have titled it "humor" but i think we should be careful about our activities, specially we should check the salt of the prepared foods.
जवाब देंहटाएंज्योतिर्मोय, मैंने इसे व्यंग इसलिए कहा कि किसी की भावनाएं आहत न हो! आज हालात ये है कि यदि हम ईश्वर के प्रति हमारे व्यवहार की सच्चाई भी बयान करें तो कई लोगों को वो नागवार गुजरता है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को ब्लॉग के किसी एडमिन ने हटा दिया है.
जवाब देंहटाएंBAHUT HI ACHHA BLOG HAI AAP AEK BAR MERI BLOG PAR VISIT KARKE BATANA KAISA HAI
जवाब देंहटाएंWWW.FREEMEINFO.COM
Bahut acchi post.....sahi kaha aapne ki ham bhagwan ke sath nainsafi karte hain....sab kuch chahate to hain unse lekin dene ko kuch bhi raji nahi hote.....faltu ka dosh un par lagate hain jabki adhiktar log isvar ke rules ko jante bhi nahi hain.....bahut acchi baten share ki hain aapne.....dhanyavad!
जवाब देंहटाएंVery nice post mam..
जवाब देंहटाएंभगवान को जो कुछ भी हम चढ़ाते है वह एक भाव मात्र है ! सुंदर आलेख।
जवाब देंहटाएंकभी किसी को भगवान् ने नहीं कहा की ये करो वो करो ...उसे भगवान बुद्धि- विवेक दिया है.. सबकुछ इंसान खुद करता है ...ऊपर वाले को दोष देना एक बहाना है ..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति ...
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
धन्यवाद,कविता।
हटाएंअच्छा हास्य व्यंग है आपके आलेख में ... सच है हर बात का दोष भगवान् पे दाल कर हम हलके हो जाते हैं ... जो ठीक तो नहीं ही है ...
जवाब देंहटाएंजनम दिन की हर्दिक बधाई आपको ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद, नासवा जी।
हटाएंbahut acha..
जवाब देंहटाएंजन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं ज्योति जी । बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने । वैसे तो मैं कोई विशेष धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति नहीं क्योंकि संसार में चहुँओर व्याप्त अन्यायों और अत्याचारों को देखते हुए मैं बड़ा हुआ हूँ और मैंने सदा यही पाया है कि भगवान यदि है भी तो वह समर्थों के ही साथ है चाहे वे अन्यायी एवं अत्याचारी ही क्यों न हों, पीड़ितों के नहीं । लेकिन आपके इन विचारों से मैं सहमत भी हूँ और इन्हें पढ़कर अभिभूत भी । वर्तमान युग को देखते हुए तो हम जैसे लोग भगवान से यही कह सकते हैं - 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान; सूरज न बदला, चाँद न बदला, न बदला रे आसमान, कितना बदल गया इंसान ।'
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, जितेंद्र जी! मैं आपसे एक बात कहना चाहती हूं कि भगवान हमेशा हर किसी के साथ रहता है। फर्क सिर्फ इतना है कि समर्थों के पास सुखसुविधा के साधन देख कर हमें ऐसा प्रतित होता है कि वो सिर्फ उनके साथ है!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी बिलकुल कहा आपने | हम अपने कर्म नहीं देखते है और और हर एक अपनी गलती के लिए भगवान को दोष देते है |
जवाब देंहटाएंबहुत ही तुलनात्मक ढंग से इंसान के ईश्वर के प्रति मनोभावो का आपने वर्णन किया ... वैरी nice ज्योति मैडम
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है . कुछ लोगों की इस बात से सहमत नहीं हूँ कि सबकुछ ईश्वर ही कराता है . अगर ऐसा होता तो ईश्वर ने हमें बुध्धि नहीं दी होती . हम एक रोबोट की तरह होते, जिस काम के लिए हमें प्रोग्राम किया जाता वो करते और चले जाते . पर हमारे पास बुध्धि है , विवेक है , कर्म करने की इच्छाशक्ति है, जिसका फल जरूर हमें ईश्वर ही देता है .
जवाब देंहटाएंमोहम्मद जी, आपका यह तर्क कि यदि ईश्वर ही हमसे सब कुछ कराता तो ईश्वर ने हमें बुद्धि नहीं दी होती बहुत ही सटीक है। ईश्वर ने हमें बुद्धि देकर कार्य करने की स्वतंत्रता दी, इसी का यह मतलब है कि हमारे हर कार्य के लिए हम स्वयं जिम्मेदार है। बहुत बढिया तर्क...!
हटाएंTanks.
जवाब देंहटाएंFor promote your life read this blog:-maheshchandrarahi.blogspot.com
बिलकुल सही फ़रमाया आपने मैं पूर्ण रूप से सहमत हूँ आपसे,
जवाब देंहटाएंगलती खुद की और ठीकरा फूटा ईश्वर के सर
सही कहा ज्योति जी अक्सर हम अपने काम बिगड़ने का सारा दोष भगवान पर डाल देते हैं | अब बेचारे भगवान् क्या करें | रोचक शैली में लिखा गया बहुत सुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंकमाल का आलेख
जवाब देंहटाएंI just read you blog, It’s very knowledgeable & helpful.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को ब्लॉग के किसी एडमिन ने हटा दिया है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ज्योति जी ,मैं आप के विचारो से पूर्णतः सहमत हूँ। मुझे भी नहीं समझ आती ये दोहरी मानसिकता अगर ईश्वर से प्यार है उनकी भक्ति दिल से करनी है तो सवरी बने।
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने ...
जवाब देंहटाएंहम अपनी कमी का ठीकरा भगवान पे फोड़ते हैं ...
बढ़िया लेख ज्योति jiजी
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