इंसान चाहे चाँद पर जाए या मंगल पर पानी की खोज करे, नारी ऐसे-ऐसे अंधविश्वास की शिकार है कि जैसे नारी जानबूझ कर और पुरे होशो-हवास में रजस्वला होने का महापाप करती है।
क्या रजस्वला (मासिक धर्म) होना नारी का गुनाह या पाप है??
इंसान चाहे चाँद पर जाए या मंगल पर पानी की खोज करे, मैं बात करना चाहती हूं उस अवैज्ञानिक सोच की, जीस सोच के कारण रजस्वला नारी को अपवित्र माना जाता है, स्वयं के ही घर में उस से अछूत की तरह बर्ताव किया जाता है! जैसे नारी ने जानबूझ कर और पुरे होशो-हवास में यह महापाप किया है। हैरानी तो तब और अधिक होती है, जब हमारे पोथी पुराणों में भी मासिक धर्म को अशुद्ध समय माना गया है।इस समय महिलाओं को घर के कामकाज एवं पूजा-पाठ करने से मना किया गया है। मासिक धर्म के विषय में यह मान्यता है कि इस दौरान स्त्री अचार को छू ले तो अचार सड़ जाता है। पौधों में पानी दे तो पौधे सूख जाते हैं। जो की पुर्णतया गलत है। और तो और, इस पाप को धोने के लिए विधीवत व्रत करने की सलाह भी दी गई है! जैसे ऋषिपंचमी का व्रत!
इस कथा में बताया गया हैं कि सुमित्र नाम का एक ब्राम्हण था। उसकी पत्नी का नाम जयश्री था। जयश्री, वेदों में बताएं गए मासिक धर्म के नियमों का पालन नहीं करती थी। माहवारी के समय भी वह स्वयं भोजन बनाती और पति को भोजन करवाती। इससे अगले जन्म में जयश्री को कुतिया और ब्राम्हण को बैल के रुप में जन्म लेना पड़ा। इस कारण से महिलाओं को आज भी माहवारी के समय धार्मिक कार्यों में भाग लेने की मनाही रहती हैं। वास्तव में, अगले जन्म में इंसान का किस रुप में जन्म होगा और उसका आधार क्या हैं विज्ञान के लिए भी यह एक अबुझ पहेली हैं।इंसान चाहे चाँद पर जाए या मंगल पर पानी की खोज करे, मैं बात करना चाहती हूं उस अवैज्ञानिक सोच की, जीस सोच के कारण रजस्वला नारी को अपवित्र माना जाता है, स्वयं के ही घर में उस से अछूत की तरह बर्ताव किया जाता है! जैसे नारी ने जानबूझ कर और पुरे होशो-हवास में यह महापाप किया है। हैरानी तो तब और अधिक होती है, जब हमारे पोथी पुराणों में भी मासिक धर्म को अशुद्ध समय माना गया है।इस समय महिलाओं को घर के कामकाज एवं पूजा-पाठ करने से मना किया गया है। मासिक धर्म के विषय में यह मान्यता है कि इस दौरान स्त्री अचार को छू ले तो अचार सड़ जाता है। पौधों में पानी दे तो पौधे सूख जाते हैं। जो की पुर्णतया गलत है। और तो और, इस पाप को धोने के लिए विधीवत व्रत करने की सलाह भी दी गई है! जैसे ऋषिपंचमी का व्रत!
ऋषिपंचमी की कथा
आज के हालात
कई समाजों में यह भयंकर रिवाज़ आज तक चालू है। रजस्वला स्त्री को घर के कोने में चटाई डाल कर अकेला छोड़ दिया जाता है। वे पूजा घर में, रसोई घर में नहीं जा सकती। एक तरह से रजस्वला नारी को खुद के ही घर में बहिष्कृत किया जाता है। अचानक घर में मेहमान आने पर वो उन्हें पानी भी नहीं दे सकती! उस समय (खासकर पुरुष) मेहमानों के सामने नारी को कितना लज्जित होना पड़ता है, इस अपमानजनक स्थिति का दर्द, सिर्फ रजस्वला नारी ही समज सकती है।
आज कल पढ़े-लिखें लोग, रजस्वला नारी को बाकि सभी सामानों जैसे कपड़े-बिस्तर आदि को छूने देते है। रजस्वला नारी घर के बाकि सदस्यों को भी छू सकती है। लेकिन पूजा घर एवं रसोई घर में आज भी इनका जाना वर्जित है। चाहे एकल परिवारों के चलते, कितनी ही परेशानियां क्यों न उठानी पड़े! बच्चों को टिफ़िन में कैसा भी उल्टा-सीधा खाना देकर क्यों न भेजना पड़े! सिर्फ कुछ पढ़े-लिखें लोगों ने खाना बनाने की समस्या को देखते हुए, मज़बूरी वश समझौता करते हुए, नारी को रसोई घर में जाने की इजाजत दे दी है।
अब आप ही सोचिए, यदि एकल परिवारों के चलते हम परिस्थिति से समझौता करते है, रजस्वला नारी को रसोई घर में जाने की इजाज़त देते है, तब क्या नारी को या उसके परिवार वालों को दोष नहीं लगता?
नैसर्गिक क्रिया
दरअसल मासिक चक्र या रजस्वला होना एक नैसर्गिक क्रिया है, जो पूरी तरह से शरीर के गर्भावस्था के लिए तैयार होने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है। यह कहना कि इससे दूषित रक्त बाहर निकलता है सर्वथा गलत है। चिकित्सीय दृष्टिकोन से नारी का ठीक समय पर रजस्वला होना एक स्वस्थ व्यक्ति होने का संकेत है।
रजस्वला (मासिक चक्र) होना एक वरदान
यदि रजस्वला (पीरिएड्स से) होना स्त्री का गुनाह है या पाप है, तो रजस्वला हुए बिना वो माँ कैसे बनेगी? जिस रज से इंसान (चाहे वह नर हो या नारी) का शरीर बनता है उसे ही हम अपवित्र कैसे मान सकते है? वास्तव में रजस्वला होना प्रकृति का नारी को दिया हुआ एक महावरदान है!! इसी वरदान की वजह से नारी माँ बन सकती है!!
परंपरा के पीछे का सच
दरअसल इन चार-पांच दिनों में नारी का शरीर थोड़ा कमज़ोर हो जाता है। कई स्त्रियों को तो असहनीय दर्द भी होता है। अत: यह बात ध्यान में रखते हुए, शायद हमारे बड़े-बुजुर्गों ने यह परंपरा शुरू की होगी कि इसी बहाने नारी को थोड़ा आराम मिलेगा। लेकिन अच्छी पहल का भी परिणाम उल्टा ही हुआ! रजस्वला नारी को अपवित्र माना जाने लगा और उससे चौके-चूल्हे के काम छोड़ कर बाकि सभी काम करवाये जाने लगे! अत: यह विचार कि रजस्वला नारी स्वयं भी अपवित्र होती है एवं वातावरण को भी अपवित्र करती है सर्वथा अवैज्ञानिक है। पेड़-पौधे के सुखने की बात भी पूर्णतया गलत है।
अंत में सिर्फ इतना कहुंगी कि,
" क्यों अपने ही घर में अछूत की तरह रहती है नारी?
लड़की है, लकड़ी की तरह क्यों जलती नारी??"