ऐसी कई परम्पराएं है जो उस समय के हिसाब से उपयुक्त थी। लेकिन हम उन परम्पराओं का कार्य-कारण भाव जाने बिना पागलों की तरह उनका अनुसरण करते रहते है।
मैं ट्रैन से तुमसर से नागपुर जा रही थी। बगल वाली सीट पर एक दंपति अपने दो बच्चों (लड़का लगभग 14-15 साल का एवं लड़की लगभग 12-13 साल की ) के साथ सफर कर रहे थे। कन्हान नदी आने के पहले ही उन महोदय ने अपने दोनों बच्चों को एक-एक सिक्का दिया और कहा कि "नदी आ रही है, सिक्कों को नदी में डाल देना।" इतने में नदी आ गई। दोनों बच्चों ने आज्ञाकारी बच्चों की तरह सिक्के नदी में डाल भी दिए। लेकिन बच्चें तो बच्चें ठहरे और वो भी आजकल के स्मार्ट बच्चें! चुपचाप बिना कोई सवाल पूछे काम कर ले तो सूरज को पश्चिम में उगना पड़ेगा! सिक्के देने में और नदी के आने में समय की इतनी कमी थी कि बेचारे सवाल कर ही नहीं पाएं। लेकिन अब नदी जा चुकी थी। अत: अब बच्चे शुरू हो गए।
"पापा, नदी में सिक्के डालने से क्या होता है?"
"पुण्य मिलता है!!"
"लेकिन पापा, आप ही तो कहते है न कि हमें पुण्य तब मिलता है जब हमारे किसी काम से किसी दूसरे व्यक्ति को लाभ मिलता हो। जैसे बड़ों की सेवा करके, भूखों को रोटी खिला कर या किसी भी व्यक्ति की हम जिस भी प्रकार से मदद कर सकते है उस तरीके से मदद कर कर। लेकिन नदी में सिक्के डाल कर हमने किस की मदद की, यह हमारी समझ में नहीं आया है! क्योंकि वह सिक्के किसी जरूरतमंद को मिलेंगे ही इसकी कोई गारंटी नहीं है। हो सकता है सिक्के रेत में जाकर फंस जाय!"
अब उन महोदय को जबाब नहीं सूझ रहा था। अत: उन्होनें कह दिया कि "मुझे नहीं पता हमने किसकी मदद की! लेकिन नदी में सिक्के डालने से पुण्य मिलता है ऐसा मेरे दादाजी कहा करते थे। अब दादाजी झूठ तो नहीं बोलेंगे न?"
"पापा, हम ये नहीं कह रहे है कि दादाजी ने झूठ बोला था लेकिन इसके पीछे कुछ तो कारण होगा?"
अब उन महोदय को जबाब तो मालूम नहीं था। लेकिन बच्चों के सामने अपनी अज्ञानता प्रगट भी करना नहीं चाहते थे। सो अब? उनका पारा सातवे आसमान पर चढ़ गया। ऐसे वक्त में बेचारी पत्नियाँ ही पतियों के निशाने पर होती है! लगे पत्नी को खरी-खोटी सुनाने!
"तुमने ही बच्चों को अपने लाड़-प्यार में बिगाड़ दिया है। एक बात नहीं सुनते है। बड़े-छोटों का तो कोई लिहाज ही नहीं है। एक हम थे...। याद नहीं, कभी भी खुद के पिताजी से उलट कर कोई सवाल किया हो!"
पत्नी बेचारी चुप! उसकी क्या मजाल, जो पति के सामने मुंह खोले!
सभी सह यात्री यह नज़ारा बड़ी तल्लीनता से देख रहे थे। हो सकता है की मेरी तरह और कुछ लोगों को जबाब पता होगा। लेकिन समय की नज़ाकत को देखते हुए कोई कुछ नहीं बोला।
वास्तव में जूने ज़माने में सिक्के तांबे के हुआ करते थे। और तांबा पानी को शुद्ध करता है। हमारे पूर्वज नदी में सिक्के इसलिए डालते थे ताकि नदी का पानी शुद्ध हो। पानी शुद्ध होगा तो नदी में के जलचर जीव-जंतु, नदी के किनारे रहने वाले जीव-जंतु, इंसान सभी को फायदा होगा। इस तरह इतने सारे जीव-जानवरों को फायदा होगा तो पुण्य तो मिलेगा न!!
लेकिन अब सिक्के तांबे के नहीं है। अब इन सिक्कों से नदी का पानी शुद्ध न होकर अशुद्ध होगा। और हमें पुण्य नहीं पाप मिलेगा,पाप!! यह बात हमें समझनी चाहिए। पढ़िए यह खबर,
"अमेरिकी राज्य व्योमिंग का 'मॉर्निंग ग्लोरी पूल' गर्म पानी का प्राकृतिक स्त्रोत है। यहां हजारों पर्यटक सिक्के डालते थे। उसमें से अगर सिक्का निकल जाता था, तो उसे सौभाग्य समझा जाता था। अब सिक्के डालने की परंपरा बंद हो चुकी है, क्योंकि उनके कारण इसमें केमिकल रिएक्शन हो रहा था। इसके चलते पूल का रंग जो की नीला था, अब हरा हो रहा है।"
(दैनिक भास्कर, दि. 26-2-2015)
ऐसी कई परम्पराएं है जो उस समय के हिसाब से उपयुक्त थी। लेकिन हम उन परम्पराओं का कार्य-कारण भाव जाने बिना पागलों की तरह उनका अनुसरण करते रहते है। ऊपर से कहते है कि परम्पराओं का पालन करने से पुण्य मिलेगा चाहे आज के समय के हिसाब से वे विनाशकारी ही क्यों न हो!!
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