पति का अहं हमेशा पत्नी की तरक्की के आड़े आता है। पति अपने पत्नी की तारीफ सहन नहीं कर सकता खासकर खुद की तुलना में।आज भी ज्यादातर महिलाए, अपने पति के अहं का शिकार होकर अपनी प्रतिभा का गला घोंटने मजबूर है।
दिन ख़्वाबों को पलकों में सजाने में बीत गए,
रात नींदों को मनाने में गुजर गई,
जिस घर में मेरे नाम की एक तख्ती भी नहीं,
ये उम्र सारी उस घर को सजाने में लग गई!!
सच है, पत्नी का पूरा श्रृंगार, सिर की चुनरी से लेकर पांव की बिछिया तक, पतियों के नाम का होता है। पत्नी को आशीष भी मिलता है तो पति के नाम का! 'सदा सुहागन रहो!' पत्नियां व्रत करती है तो पतियों के लिए! जिस बच्चे को अपनी कोख में रखकर अपने खून से सींचती है, खुद गीले में सो कर उसे सूखे में सुलाती है उस बच्चे के नाम के आगे भी नाम होता है पति का! और तो और, खुद की पहचान जो एक नाम होता है वो तक शादी के बाद बदल जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि पत्नी का सब कुछ अपने पति के लिए होता है। लेकिन पतियों के पास पत्नी के नाम का क्या होता है? कुछ भी नहीं। ऐसे कितने पुरुष है जो अपनी पत्नी के लिए व्रत रखते है? क्या आप ऐसे किसी सत्यवान को जानते है, जो यमराज के पास से अपनी पत्नी को छुड़ा लाया? नहीं न!
चेतन भगत का एक लेख 'भारत की मार्केटिंग का सही तरीका' में उन्होंने एक अरबपति उद्योगपति के कथन का उल्लेख किया है। जिसमेंं उद्योगपति ने विदेशी निवेशकों की तुलना भारतीय बहू से की है। उद्योगपति के कथन के मुताबिक, ''भारत सरकार निवेशकों के साथ बहू की तरह व्यवहार करती है। वह उन्हें बड़ी धूमधाम से अपने घर लेकर आती है, लेकिन धीरे-धीरे वह उसकी गर्दन पर सवार होकर उसका दम घोंटने लगती है।'' यह कथन मूलत: है तो विदेशी निवेश के बारे में लेकिन बहुओं पर, पत्नियों पर कितना सही लागु होता है?
सच है, पत्नी का पूरा श्रृंगार, सिर की चुनरी से लेकर पांव की बिछिया तक, पतियों के नाम का होता है। पत्नी को आशीष भी मिलता है तो पति के नाम का! 'सदा सुहागन रहो!' पत्नियां व्रत करती है तो पतियों के लिए! जिस बच्चे को अपनी कोख में रखकर अपने खून से सींचती है, खुद गीले में सो कर उसे सूखे में सुलाती है उस बच्चे के नाम के आगे भी नाम होता है पति का! और तो और, खुद की पहचान जो एक नाम होता है वो तक शादी के बाद बदल जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि पत्नी का सब कुछ अपने पति के लिए होता है। लेकिन पतियों के पास पत्नी के नाम का क्या होता है? कुछ भी नहीं। ऐसे कितने पुरुष है जो अपनी पत्नी के लिए व्रत रखते है? क्या आप ऐसे किसी सत्यवान को जानते है, जो यमराज के पास से अपनी पत्नी को छुड़ा लाया? नहीं न!
चेतन भगत का एक लेख 'भारत की मार्केटिंग का सही तरीका' में उन्होंने एक अरबपति उद्योगपति के कथन का उल्लेख किया है। जिसमेंं उद्योगपति ने विदेशी निवेशकों की तुलना भारतीय बहू से की है। उद्योगपति के कथन के मुताबिक, ''भारत सरकार निवेशकों के साथ बहू की तरह व्यवहार करती है। वह उन्हें बड़ी धूमधाम से अपने घर लेकर आती है, लेकिन धीरे-धीरे वह उसकी गर्दन पर सवार होकर उसका दम घोंटने लगती है।'' यह कथन मूलत: है तो विदेशी निवेश के बारे में लेकिन बहुओं पर, पत्नियों पर कितना सही लागु होता है?
पति और पत्नी - सोच का फर्क
1) पत्नी, पति की छोटी से छोटी कामयाबी पर खुश होकर, गर्व महसूस कर सबको बताती है।पति ठीक है, अच्छा है कह कर चुप रहता है।
2) पत्नी, पति के सामने दूसरे पुरुषों की तारीफ नहीं कर सकती।
पति जब चाहे तब पत्नी के सामने दुसरी महिलाओं की तारीफ करते नहीं थकते।
3) पत्नी के लिए ''पति देवता है''।
पति के लिए ''पत्नी पैर की जुती है''।
4) ज्यादातर पत्नियां अपने मोबाईल की होम स्क्रीन पर पति का फोटो सेव करती है।
पतियों का कहना होता है कि 24 घंटे तो तुमको देखता रहता हूं। क्या मोबाईल में भी तुमको ही देखू?
5) पत्नियां, सात जन्म तक ये ही पति मिले की कामना रखती है।
पति, एक जन्म में ही बोर हो जाते है।
6) पत्नियों को हर काम पति के पसंद का करने में आंतरिक ख़ुशी मिलती है।
पत्नी की पसंद का थोड़ा भी करने में ''जोरू का गुलाम'' कहलाने का डर लगता है।
पति का अहं
पति का अहं हमेशा पत्नी की तरक्की के आड़े आता है। हार कर पत्नी को ही अपनी प्रतिभा का गला घोंटना पड़ता है। पति-पत्नी के बीच पेशेगत स्पर्धा आ जाए, तो सबंधों की मीनार पोली होने लगती है। मान-अभिमान का दुष्चक्र, कई बार प्रियतम रिश्तों की भी बलि ले लेता है। महान सितारवादक प.रविशंकर और उनकी विदुषी पत्नी अन्नपूर्णा देवी के रिश्ते ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के शिकार होकर बिखर गए। उस टूटन की आह आज भी संगीत जगत की वादियों में गूंज रही है। उन दोनों की जुगलबंदी के पांच-छ: कार्यक्रम हुए थे और वे संगीतज्ञ के रूप में रविशंकर के मुकाबले अन्नपूर्णा की श्रेष्ठता साबित करने के लिए काफी थे। कार्यक्रम के बाद रविशंकर अन्नपूर्णा को हतोत्साहित करने के लिए उनके पहनावे में नुक्स निकलते थे। वाह रे पतिधर्म! पत्नी अपने पति की कामयाबी के लिए हरसंभव प्रयास करती है। उसे प्रोत्साहित करती है और पति अपने पत्नी की तारीफ सहन नहीं कर सकता खासकर खुद की तुलना में। कितने स्वार्थी होते है पुरुष! प्यार करने का सिर्फ दंभ भरते है! अरे, प्यार करने वाले तो अपने प्रियतम को आकाश की ऊंचाइयों तक पहुंचाना चाहते है। अपने प्रियतम की तारीफ सुनकर फुले नहीं समाते! लेकिन यह बात पुरुषों पर लागु नहीं होती। स्वार्थी जो ठहरे! आज प. रविशंकर से सभी परिचित है लेकिन अन्नपूर्णा का नाम, गुमनामी के अँधेरे में खो गया। प. रविशंकर से भी ज्यादा प्रतिभा होने के बावजूद सिर्फ एक पत्नी होने की सजा अन्नपूर्णा देवी को मिली! मैं तो कहती हूं महान तपस्विनी है ऐसी नारियां जो अपने-आप को मारकर भी सिर्फ और सिर्फ अपने पति के लिए, परिवार के लिए अपना वजूद खोकर भी चेहरे पर सिकन लाए बिना जिंदगी जीती है!! क्या पता भारत में ऐसी कितनी अन्नपूर्णाए है जिन्हें चाहिए सिर्फ और सिर्फ एक मौक़ा, परिवार की इजाज़त ताकि वे अपनी प्रतिभा से सबको अवगत करा सके!
दूसरा उदा. है मेजर सरोजा कुमारी का। मेजर सरोजा कुमारी ने राष्ट्रमंडल खेलों में निशानेबाजी प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया था। सरोजा कुमारी के पति लेफ्टिनेंट कर्नल सुशीलकुमार ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिले पुरस्कार को सड़क पर पटक दिया। संसार में आने के लिए जिस अमानुषिक मानसिकता का सामना महिलाओं को करना पड़ता है, यह उसकी चरम परिणति है। महिलाओं की आजादी, उनकी हालात में सुधार के तमाम दावों के बावजूद आज भी महिलाए निहायत ही बेबस जिंदगी का प्रतिनिधित्व करती है। सरोजा कुमारी के पति का बर्ताव बताता है कि पढ़े-लिखे लोग भी सामंतवादी मानसिकता से पीड़ित है। बहुत कम लोग पत्नी के यश को आसानी से पचा पाते है।
मेरे यह सब कहने का मतलब यह कदापि नहीं है कि सभी पति ऐसे होते है। लेकिन ज्यादातर इसी श्रेणी में आते है। आज भी मी.मेरीकॉम जैसे आदर्श पति है, जिन्होंने अपने अहं को परे रख कर पत्नी को प्रोत्साहन दिया। मेरीकॉम का मेरीकॉम बनने में जितना योगदान उनका खुद का है उतना ही योगदान उनके पति का भी है। पर ऐसे पति अपवादात्मक ही है। आज भी ज्यादातर महिलाए, अपने पति के अहं का शिकार होकर अपनी प्रतिभा का गला घोंटने मजबूर है।
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (12-01-2015) को "कुछ पल अपने" (चर्चा-1856) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धीरे धीरे बहुत कुछ बदल रहा है लेकिन अभी भी मंजिल दूर है ....सब कुछ मानसिकता पर निर्भर है ..
जवाब देंहटाएंअच्छा चिन्तनकारी मंथन
धीरे धीरे बहुत कुछ बदल रहा है लेकिन अभी भी मंजिल दूर है ....सब कुछ मानसिकता पर निर्भर है ..
जवाब देंहटाएंअच्छा चिन्तनकारी मंथन
Accha aur saccha vishleshan hain.. Purush yu to stri ko kamzor samjhata hai ....jab WO apna dam dikati hai to jakhmi ho jaatein hain bin waar....umdaaaa...lajawaab
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदल रहा है
जवाब देंहटाएंआज 22/जनवरी/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
कटु सत्य है
जवाब देंहटाएंएक एक वाक्य यथार्थ लिखा है ज्योति जी। चाहे समय बदल चुका है पर मानसिकताएं आज भी कुछ जगहों पर रूढ़िवादिता का समर्थन करती ही नज़र आती हैं।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना पढ़ने और प्रतिक्रिया देने हेतु आभार ज्योति जी। निवेदन है संभव हो तो नारी का नारी को नारी के लिए ब्लॉग पर मेरी स्वरचित कविता पराई भी पढ़कर मार्गदर्शन कीजियेगा धन्यवाद। http://lekhaniblogdj.blogspot.in/2015/04/blog-post_19.html#links
बढ़िया चिंतन और विवेचना.
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंज्योति जी बहुत ही खूबसूरत और सकारात्मक मुद्दा पेश किया है , बहुत खूब। लिखते रहें शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंThis is gradually changing on the surface, but the situation is mostly the same deep down. Your write-up is a food for thought!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसही कहा ज्योति आपने । बाहरी तौर पर देखें तो बदलाव नज़र आता है । पर अंदर से जडें अभी खोखली ही हैं । समाज की मानसिकता का अच्छा चित्रण किया है आपनें ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद,शुभा!
हटाएंबात आपकी सही है पर प्रश्न है ऐसे में नारी क्या करे ... इसका उत्तर खोजना जरूरी है ...
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख लिखा आपने ज्योति जी,कुछ मुट्टठीभर लोगों की मानसिकता ऐसी है.....पर सच तो यही है कि बिना स्त्री पुरूष के मानसिक तालमेल के एक सुखी वैवाहिक जीवन की कल्पना बेमानी है।
जवाब देंहटाएंआपके दिये उदाहरण जैसी घटनाएँ समाज में आम है।
बहुत कुछ बदलने के बाद भी बहुत कुछ बदलना शेष है अभी।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा लेख ज्योति जी .
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा लेख। कटु सत्य लिख दिया आपने। जहाँ तक मैं समझता हूं कि मूलतः पुरुषों को अप्राप्य को जीतने में रस आता है। जीत लिया ख़्वाब खत्म, लेकिन नारी ह्रदय समर्पण में विश्वास रखता है, जीत जाने में नहीं हार जाने में विश्वाश रखता है। इसलिए नारी के त्याग और निष्ठा की पुरुषों से तुलना कठिन है।
जवाब देंहटाएंयह विरोधाभास रहता आया है। रहने वाला है। लेकिन अपवाद भी रहते आये हैं रहने वाले हैं। बहुत रोचक और ज्वलंत चिंतन। वाह आदरणीया
Bahut umda lekh
जवाब देंहटाएंसमाज एक पहलू यह भी ....👍
जवाब देंहटाएंसही कहा ज्योति जी!आज भी बहुत से उदाहरण अपने इर्दगिर्द ही देखने को मिलते हैं जब पति की स्वीकृति न मिल पाने के कारण महिलाएं मन मसोसकर रह जाती हैं....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर एवं सटीक आलेख...।
आजकल आपकी पोस्ट पर प्रतिक्रियाएं दिखाई नहीं देती हैं....। तकनीकी गड़बड़ी है या....???
जवाब देंहटाएंपता ही नहीं चलता कि हमारी प्रतिक्रिया प्रकाशित हुई या नहीं...
बहुत अच्छा आलेख है ...
जवाब देंहटाएंपति बस अपनी पुरुष सत्ता का भोग करता है और पत्नी पे हर तरह का दबाव डालता है ...