क्या आपको बाहर का खाना पसंद हैं? यदि हां, तो एक बार यह लेख ज़रूर पढिएगा। होटल के खाने से कई गुना स्वादिष्ट खाना हमारे घरों में बनता हैं। फ़िर भी हम बाहर के खाने के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं?
क्या आपको बाहर का खाना पसंद हैं? यदि हां, तो एक बार यह लेख ज़रूर पढिएगा। आजकल किसी का जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह हो...बाहर खाने का कार्यक्रम बनता ही हैं। हर विकेंड पर होटल में खाना खाने जाना एक तरह का रिवाज बनता जा रहा हैं। होटल में हर चीज के दाम कई गुना ज्यादा रहते हैं। और स्वाद?...दोस्तों के साथ या परिवार के साथ मौजमस्ती करने निकले हैं तो थोड़ा बहुत स्वाद से समझौता करना ही पड़ेगा यह सोचकर हम चुपचाप बेस्वाद खाना भी चटखारे लेकर खा जाते हैं! मानती हूं कि हर जगह का खाना बेस्वाद नहीं होता। लेकिन ज्यादातर होटलों का खाना बेस्वाद ही होता हैं। यह बात वो लोग अच्छे से समझ सकते हैं जिन्हें घर से दूर रहने के कारण घर का खाना नसीब नहीं होता! असलियत यहीं हैं कि होटल के खाने से कई गुना स्वादिष्ट खाना हमारे घरों में बनता हैं। फ़िर भी हम बाहर के खाने के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं? पार्टी-शार्टी करनी ही हैं तो यदि पार्टी करनेवाला हर व्यक्ति अपने-अपने घर से एक-एक व्यंजन बना कर लाए तो ये व्यंजन होटल से स्वादिष्ट भी होंगे और सस्ते भी पड़ेंगे!
बाहर के खाने के शारीरिक नुकसान
बाहर के खाने के शारीरिक नुकसान
होटल का खाना बेस्वाद और महँगा ही नहीं होता बल्कि वो सेहत के दृष्टिकोण से बहुत नुकसानदायक होता हैं। क्योंकि घर में खाना बनाते वक्त हम जिस तरह की साफ़ सफाई का ख्याल रखते हैं, वैसी साफसफाई होटलों में नहीं रखी जाती। सेहत को ख्याल में रख कर एक तरफ तो हम बीसलरी का पानी पीते हैं तो दूसरी तरफ होटलों का अशुद्ध खाना खाते हैं! होटलों में खाना कौन से तेल में बनाया गया हैं? उन्होंने सब्जियां ठीक से धोई थी या नहीं? खाना कौन से पानी से बनाया? यह हमें पता नहीं होता! और यदि हमें पता चल जाए तो मुझे पूरा विश्वास हैं कि ज्यादातर होटलों में हम दोबारा खाना खाने नहीं जाएंगे!! बाहर का खाना खाने से न सिर्फ आपके पेट के आस-पास चर्बी बढ़ती है, बल्कि डायबिटीज का खतरा भी बढ़ जाता है। बाहर रेस्तरां में बिकने वाले अधिकतर फूड में फैट और कैलरी की मात्रा सबसे ज्यादा होती है। उनका मकसद लोगों का स्वास्थ्य न होकर चटपटा और मसालेदार भोजन परोसना है जो सेहत को नुकसान पहुंचाता है। ऐसा देखा गया है कि अपने लाभ के लिए दुकानदार अपने ग्राहकों को कुछ भी खिला देता है। जिसका असर बाद में दिखाई देने लगता है।
बाहर के खाने के मानसिक नुकसान
बाहर खाना खाने का सबसे बड़ा नुकसान यह हैं कि खाना बनाने वाले व्यक्ति कौन हैं? उनके आचार-विचार अच्छे हैं या नहीं? यह हमें पता नहीं होता! आप कहेंगे कि खाना बनानेवाला व्यक्ति कोई भी हो...वो कुछ भी सोचे... हमें तो खाना खाने से मतलब हैं! दोस्तों, यहीं तो हम से गलती हो जाती हैं। कहा जाता हैं कि जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन। सात्विक अन्न वहीं कहलाता हैं जो इमानदारी की कमाई से खरीदा गया हो और खाना बनाने वाले का मन आनंदित हो!
बाहर खाना खाने का सबसे बड़ा नुकसान यह हैं कि खाना बनाने वाले व्यक्ति कौन हैं? उनके आचार-विचार अच्छे हैं या नहीं? यह हमें पता नहीं होता! आप कहेंगे कि खाना बनानेवाला व्यक्ति कोई भी हो...वो कुछ भी सोचे... हमें तो खाना खाने से मतलब हैं! दोस्तों, यहीं तो हम से गलती हो जाती हैं। कहा जाता हैं कि जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन। सात्विक अन्न वहीं कहलाता हैं जो इमानदारी की कमाई से खरीदा गया हो और खाना बनाने वाले का मन आनंदित हो!
एक बार एक निर्दोष व्यक्ति को झूठे इल्जाम में जेल हो जाती हैं। दो-तीन दिनों बाद ही उसे सपने में दिखता हैं कि वो अपनी खुद की माँ की हत्या कर रहा हैं। वो अपनी माँ से बहुत प्यार करता हैं। माँ को यदि कांटा भी चुभा तो दर्द उसे होता था। ऐसे में वो व्यक्ति बहुत परेशान हो जाता हैं कि मुझे इस तरह के सपने क्यों आ रहे हैं? मैं तो मेरी माँ से बहुत प्यार करता हूं। हत्या करना तो बहुत दूर की बात हैं मैं तो उन्हें उदास भी नहीं देख सकता! आखिर क्यों आ रहे मुझे ऐसे सपने? चूंकि शहर में उस व्यक्ति की बहुत इज़्ज़त थी, मान-सम्मान था अत: जब उसने जेल अधिकारी से इस मामले में बात की तो उसकी बात को महत्व देकर छानबीन की गई। तो जो बात सामने आई उस बात ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। जेल में खाना बनाने का काम जिस कैदी को सौंपा गया था उसे माँ के कत्ल के जुल्म में सजा हुई थी! यह व्यक्ति भी उसी कैदी के हाथ का बना हुआ खाना खा रहा था। इसलिए उस कैदी के विचारों का कंपन खाने में आकर इस निर्दोष व्यक्ति को माँ का कत्ल करने वाले सपने आ रहे थे!!
देखा दोस्तों, यह हैं अन्न का प्रभाव! जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन! सोचिए...सिर्फ़ पापी के हाथ का बना हुआ खाना खाने से इंसान को कैसे भयानक सपने आ सकते हैं...इंसान का मन कैसा पापी होने लगता हैं! इसलिए कहा जाता हैं कि कभी भी माँ बहन और पत्नी का दिल नहीं दुखाना चाहिए। क्योंकि ऐसे में उनके हाथ खाना तो बनाते हैं लेकिन यदि उनका मन उदास हैं...तो ये सब उदासी और गुस्से वाले कंपन खाने के अंदर जाते हैं...और वो ही खाना आप थोड़ी देर बाद खाने वाले हैं!
देखा दोस्तों, यह हैं अन्न का प्रभाव! जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन! सोचिए...सिर्फ़ पापी के हाथ का बना हुआ खाना खाने से इंसान को कैसे भयानक सपने आ सकते हैं...इंसान का मन कैसा पापी होने लगता हैं! इसलिए कहा जाता हैं कि कभी भी माँ बहन और पत्नी का दिल नहीं दुखाना चाहिए। क्योंकि ऐसे में उनके हाथ खाना तो बनाते हैं लेकिन यदि उनका मन उदास हैं...तो ये सब उदासी और गुस्से वाले कंपन खाने के अंदर जाते हैं...और वो ही खाना आप थोड़ी देर बाद खाने वाले हैं!
आजकल कई घरों में खाना बनाने के लिए नौकर (cook) रखा जाता हैं। जब घर में माँ, बहन या पत्नी खाना बनाती हैं तो उनके मन में अपने बच्चों के लिए, भाई के लिए या पति के लिए प्यार की भावना होती हैं। इसी प्यार के वशीभुत होकर वे खाना बनाती हैं। तो खाने में भी प्यार भरे कंपन मिलते जाते हैं। लेकिन यदि कूक खाना बना रहीं हैं, तो वो सिर्फ़ तुम खाओ और मैं कमाऊं इसी भावना से खाना बनाती हैं। तो ऐसा खाना खाने वाला व्यक्ति धन कमाने के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकता। यदि कोई अपनी माँ, बहन या पत्नी को बोले कि...एक रोटी और खानी हैं तो उनके चेहरे पर खुशी छा जाएगी कि आज ये एक रोटी ज्यादा खा रहा हैं। वो बहुत प्यार से एक रोटी और बना कर देगी। लेकिन यहीं बात यदि कुक से बोली जाएं तो वो सोचेगी कि रोज तो दो रोटी खाते हैं। आज क्या हो गया? अब मुझे एक रोटी कम पडेगी या आटा और लगाना पड़ेगा। एक रोटी के लिए भी उसके माथे पर बल पडेगे! ये होता हैं फर्क घर के सदस्य के खाना बनाने में और कुक के खाना बनाने में! इसलिए ही तो कहा जाता हैं कि यदि आपको किसी को अपना बनाना हैं तो उसे अपने हाथ का बना खाना खिलाइए!!
दरअसल, विटामिनयुक्त खाना खाने से हमारे शरीर में ताकत तो आएगी लेकिन यदि हमें हमारा मन भी तंदुरस्त रखना हैं तो हमें सात्विक भोजन करना होगा और वो हमें घर में ही मिल सकता हैं!!! जो लोग घर से दूर रह रहे हैं उनकी तो मजबूरी हैं बाहर का खाना खाने की! लेकिन जो लोग घर में रहते हैं वो यदि सिर्फ़ मौजमस्ती के लिए बार-बार बाहर का खाना खाते हैं...तो उन्हें एक बार इस विषय पर सोच-विचार करने की जरुरत हैं।
इमेज- गूगल से साभार
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बहुत बढ़िया लेख ज्योती जी
जवाब देंहटाएंजैसा खाए अन्न , वैसा हो मन ... बहुत अच्छा व् तर्कयुक्त लिखा आपने ज्योति जी , घर के खाने में जो लाभ शरीर व् मन को होता है वह बाहर के खाने में कहाँ ? शायद इसीलिये कहते हैं माँ के खाने का जवाब नहीं , क्योंकि माँ के मन में अपने बच्चे के लिए खाना बनाते समय स्नेह व् ममता की जो भावना होती है वो किसी अन्य के हाथ से बनाये खाने में नहीं हो सकती |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-08-2018) को "जीवन अनमोल" (चर्चा अंक-3074) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।
हटाएंबहुत तर्कपूर्ण ढंग से तथ्यों को रखा है आपने । घर के खाने के स्वाद की बात ही कुछ और है । बहुत सुन्दर लेख ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख है दी...👌👌
जवाब देंहटाएं,अक्षरशः सहमत है हम आपके इस लेख से।
अपने हाथ से बनाकर प्रेम से परोसकर खाना खिलाने का आनंद अवर्णनीय है।
हमेशा की तरह समाजोपयोगी लेख।
सादर
आभार दी:)
बहुत अच्छे तरीकेसे समझाया आपने ज्योति जी.
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लेख 👍 ज्योति जी|
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख
जवाब देंहटाएंVery interesting and informative post, good to go though your honest write up about the preparations and the makers of foods in hotel and yes there is always a mental attachment when the ladies are preparing foods for family members.
जवाब देंहटाएंumda lekh...
जवाब देंहटाएंज्योति जी आपके द्वार लिखा गया लेख वाकई काबिले तारीफ है आपके लिखने का अंदाज बहुत अच्छा है पढ़ने में आसानी रहती है।Gud morning
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