अपनी जिम्मेदारियां निभा रही शिल्पा को क्या पता था कि इसका उसे कैसा फल मिलनेवाला है...जिस नणंंद को वो अपना समझती थी वो ही...
दोपहर को चाय-नाश्ता लेकर जब शिल्पा सास के कमरे में जाने लगी तो अंदर से आती सास और नणंद की बातचीत सुनकर उसके पैर ठिठक गए। नणंद कह रही थी, "माँ, आज अरबी के पत्तो की बडी बहुत ही स्वादिष्ट बनी थी।" सुनकर शिल्पा को खुशी हुई। उसने सोचा कि इतनी व्यस्तता के बीच भी बडी बना कर उसने अच्छा ही किया। दीदी को पसंद आ गई। उसकी मेहनत सफल हो गई।
लेकिन इतने में ही सास का स्वर सुनाई दिया, "तुझे तो पता है तेरे पापा को अरबी के पत्तो की बडी कितनी पसंद है! लेकिन यहां पर किसको तेरे पापा की या मेरी पसंद की पडी है? तेरी भाभी से इतना भी नहीं होता कि हमारी पसंद का ख्याल रख कर बीच-बीच में बडी बना दिया करें। आज इस मौसम की पहली बार बडी बनी है। जबकि अरबी के पत्ते कब से बाजार में आ रहे है। अब हमारे लिए कौन बनाएगा बेटा? तुम लोग आए हो इसलिए बनी है!'' सुन कर शिल्पा को बहुत बुरा लगा।
असल में उसके सास और ससुर दोनों की तबियत पिछले दो सालों से ख़राब चल रही थी। उम्र का तकाजा था। सास की तबियत तो पिछले दो महिनों से ज्यादा ही ख़राब थी। अनवरत भाग-दौड के कारण शिल्पा ख़ुद को काफ़ी थका हुआ महसूस कर रही थी। सास-ससूर की सेवा, आने-जाने वालों की आवभगत, घर के दैनिक काम...इन सबमें उसका अंग-अंग दुखने लगा था। फ़िर भी वह सुबह छ: बजे उठ कर और जल्दी-जल्दी काम निबटाती ताकि अपना फ़र्ज अच्छे से पूरा कर सके। किसी भी काम में कोई कमतरता न रहे। इसी जल्दी-जल्दी के चक्कर में दस दिन पहले सीढ़ियों से उतरते वक्त अचानक उसका पैर फ़िसल गया और उसके पैर मे जबरदस्त मोच आ गई। डॉक्टर ने क्रेप बैंडेज बांध दिया और तीन हफ़्ते तक आराम करने की सलाह दी। लेकिन घर में सास की तबीयत देखने आने-जाने वाले लगे हुए थे तो वो आराम कैसे करती? पैर को घसीट-घसीट कर चलते हुए वो पूरे काम को अंजाम दे रही थी। तीन दिन से तो उसे बुखार भी है। क्रोसीन ले-लेकर काम चला रही है। पैर में मोच आने के पहले जब वो बाजार में सब्जी लेने गई थी तो उसे अरबी के पत्ते दिखे भी थे लेकिन अभी काम ज्यादा है कल लूंगी, यह सोच कर उसने लिए नहीं थे और फ़िर पैर की चोट के कारण वो बाजार नहीं गई। पतिदेव और बच्चों को वो जो और जितनी सब्जी लाने बोलती वो लोग उतनी सब्जी ला देते। इसलिए वो अरबी के पत्तों की बडी नहीं बना पाई।
शिल्पा को लगा कि उसकी नणंद अपनी माँ को समझाएगी कि ''माँ, आप ऐसा क्यों सोचती है? हरदम तो बनाती है ना भाभी आप दोनों की पसंद का खाना! अभी आपकी तबियत, आने-जाने वाले और भाभी का खुद का पैर...इसलिए शायद बना नहीं पाई होगी।'' लेकिन नणंद ने सास की हां में हां मिलाया। सास को समझाने के बजाय आग में घी डालने का काम किया। शिल्पा अवाक रह गई! आज उसकी शादी को बीस साल हो रहे है। उसने हमेशा माँ-बाबूजी की पसंद-नापसंद का पूरा-पूरा ख्याल रखा है। सिर्फ़ माँ-बाबूजी ही क्यों उसने तो हमेशा ही कोशिश की है कि परिवार के हर सदस्य का जहां तक संभव हो सके पूरा ख्याल रखे। यहां तक कि इस चक्कर में कभी-कभी उसके अपने बच्चों के तरफ़ अनदेखी हो जाती। वो अपने बच्चों को किसी तरह समझा देती। अभी भी उसके दोनों बच्चों की परीक्षायें चल रहीं है लेकिन वो उनकी पढ़ाई नहीं ले पा रहीं है। क्या ये सब दीदी को दिखाई नहीं दे रहा है?
शाम को नणंद किचन में आई और कहने लगी ''भाभी, तुमसे एक बात कहनी थी।''
''कहिए न दीदी।''
''कहिए न दीदी।''
''देखों, माँ की हालात तो तुम देख ही रहीं हो। मुझसे उनकी ये हालात देखी नहीं जाती। वो क्या है कि मैं बेटी हूं तो मेरा कुछ भी किया हुआ माँ को नहीं लगेगा। इसलिए तुम्हें कह रही हूं।''
''बोलिए न दीदी, क्या बात है? माँ के लिए मुझसे जो भी बन पड़ेगा मैं करुंगी।''
''तुम माँ के कान में बोलो कि मैं पांच एकादशी के व्रत करुंगी। हे भगवान आर या पार कर दे।"
''मतलब?''
''मतलब ये कि हे भगवान, या तो आप इन्हें अच्छा कर दे या मुक्ति दे दे। मैं इनके लिए एकादशी के व्रत करूंगी।''
सुन कर उसे बहुत ही बुरा लगा। ऐसा नहीं है कि उसे व्रत करने में कोई एतराज़ था। वो तो हर किसी के सुख-दु:ख में काम आना चाहती थी। फ़िर ये तो उसकी अपनी सास है। अपनी सास के लिए तो वो हरदम कुछ भी करने को तैयार है। कितने भी व्रत करने को तैयार है। लेकिन जब नणंद ने व्रत करने को कहा तो उसे बुरा लगा। उसे दु:ख इस बात का हुआ कि नणंद को दिख रहा है पैर की मोच और बुखार होने के बावजूद मैं दिन-रात काम में जुटी हुई हूं। ऐसे में दीदी को मेरी तकलीफ़ दिखाई नहीं दी? काम में हाथ बंटाना तो दूर की बात, उपर से व्रत? खैर, नणंद को बुरा न लगे इसलिए उसने सास के कान में कह दिया।
ससुराल जाते-जाते नणंद उसके गले लग कर खूब रोई। और कहने लगी, ''भाभी, कभी-कभी बाबूजी के लिए अरबी के पत्तों की बड़ी बना दिया करो।'' यह वाक्य उन्होनें कुछ इस अंदाज में कहा कि शिल्पा को लगा कि किसी ने उसके गाल पर करारा तमाचा मारा हो। उसे अपनी सालों की मेहनत मिट्टी में मिलती नजर आई। जिस नणंद को वह नणंद कम सहेली समझती थी...अपने मन की हर बात जिससे शेयर करती थी वो ही नणंद माँ-बाप के प्यार में इतनी अंधी हो जाएगी कि उन्हें सच्चाई भी नजर नहीं आएगी यह उसने सपने में भी नहीं सोचा था। शिल्पा ने हमेशा परिवार की खुशी को ही अपनी खुशी माना। शादी के बाद बीस सालों से अपना तन-मन-धन सब कुछ परिवार के लिए न्योछावर कर दिया उसका ये सिला?
वो सोचने लगी क्या भाभी इंसान नहीं होती है? क्या वास्तव में भाभी एक ऐसा प्राणी होती है जो मशीन से भी बदतर होती है? क्योंकि मशीन भी जब ज्यादा चलने से गर्म हो जाती है तो उसे ठंडा करने के लिए आराम देना जरूरी हो जाता है। लेकिन भाभी के आराम के बारे में कोई भी क्यों नहीं सोचता? भाभी के कितना भी काम करने पर भी घर के लोग खुश क्यों नहीं होते? माँ- बाप के लिए प्यार तो ठीक है...लेकिन भाभी का क्या? आखिर भाभी से इतनी ज्यादा उम्मीदें क्यों बांधी जाती है? आखिर क्यों?
यही तो मसला हे हमारे समाज का की हम एक दूसरे के इंसानी और रिश्तो के हक को सिर्फ अपने स्वार्थवश नजरंदाज़ कर देते हे। कहानी में आपने अच्छे से एक बहू की व्यथा को उजागर किया हे।
जवाब देंहटाएंजो एक घर में बेटी है वो ही किसी दूसरे घर में बहू है | फिर भी न जाने क्यों स्त्री , स्त्री की पीड़ा को समझ नहीं पाती | या जैसा आपने कहा माँ - पिता के प्रेम में अंधी हो जाती है | बेहतर हो की किसी भी बात को दोनों के नजरिये से समझा जाए | .... अच्छी कहानी
जवाब देंहटाएंसही कहा वंदना जी आपने कि यदि नारी दूसरे नारी की पीड़ा को समझेंगी तो किसी भी प्रकार की कोई समस्या निर्मित ही नही होगी। नणंद चाहे कितने भी दिन मायके में रहे भाभी को एतराज नही होगा।
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जवाब देंहटाएंबहुत सही मार्गदर्शन देती आपकी रचना ।
जवाब देंहटाएंआपकी कहानियां हम सबको पसंद आती हैं.
जवाब देंहटाएंदिनांक 22/05/2017 को...
जवाब देंहटाएंआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद,कुलदीप जी।
हटाएंबहुत ही शानदार कहानी। मुझे बहुत पसंद आई। ऐसे ही लिखती रहिए। आपकी हर नई पोस्ट का मुझे इंतजार रहता है।
जवाब देंहटाएंKahani bahut hi jaandaar hai.mujhe bahut hi pasand aayi.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंसच को उकेरती.....
यही बाते नणद, भाभी मे फर्क औऱ दूरियां पैदा करती हैं...
लाजवाब प्रस्तुति...
बहुत अच्छी कहानी
जवाब देंहटाएंस्वार्थवश ही लोग देख कर भी अनदेखा कर देते है।
कहानी के माध्यम से आपने बिल्कुल सही बात कही कि बहू से इतनी अपेक्षा क्यों, आखिर बहू भी तो एक इंसान है फिर भी हमारे यहॉ बहू को चलती फिरती मशीन समझते है ।
जवाब देंहटाएंBahut badiya jyoti ji. Aaj ke is daur me sachmuch log swarthwas dusro ke taklif ko najar andaj kar dete hai.
जवाब देंहटाएंघर घर की कहानी ... दिल को छूती बहुत कुछ कहती है कहानी ...
जवाब देंहटाएंsundar rachna keep posting..............
जवाब देंहटाएंbahut se gharo ki reality ko aapne bahut hi steek aur marmik trike se hum sabhi ke saamne bakhubhi prastut kiya...
जवाब देंहटाएंआज भी बहुत से घरों की यही सच्चाई है। कहानी का प्रस्तुतिकरण बहुत बढ़िया किया है आपने ज्योतिजी ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही कहानी लगी,ननद ने आग मे घी का काम किया, सास तो फ़िर भी गुस्सा कर के प्यार से समझ देगी बहू को.
जवाब देंहटाएंजीवन मैं आगे बढ़ने के लिए बहुत बढ़िया लेख धन्यवाद
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