यह मेरी आप बीती है। 'मदर्स डे' पर मेरी मम्मी के 'हिम्मत' की कहानी मैं सभी को बताना चाहती हूं...यदि मेरे मम्मी ने उस वक्त हिम्मत नहीं दिखाई होती तो...
यह मेरी आप बीती है। 'मदर्स डे' (9 मई को है) पर मेरी मम्मी के 'हिम्मत' की कहानी मैं सभी को बताना चाहती हूं...यदि मेरी मम्मी ने उस वक्त हिम्मत नहीं दिखाई होती तो आज मैं अपने पैरों से चल नहीं सकती थी! चलना तो दूर की बात है, शायद मैं जिंदा भी नहीं होती...!! सचमुच ऐसी हिम्मत सिर्फ़ एक माँ ही कर सकती है!!!
हुआ ये था कि कक्षा छठवी के बाद मई,1977 में गर्मियों की छुट्टियों में जब एक बार सुबह मैं सोकर उठी, तो मेरे दोनों पैरों के घुटनों के उपर का भाग घुटनों के नीचे के भाग से आपस में चिपक गए! घर के हर सदस्य नें मेरे पैरों को खींच कर सीधे करने की कोशिश की लेकिन घुटनों के वहां से पैर इतने चिपक गए थे की वहां एक उंगली भी नहीं जाती थी। एकाध महीने पहले से मेरे पैरों में ज्यादा दर्द हो रहा था। सभी को लगा कि बच्चे दिन भर खेलते रहते है इसलिए दूखते होंगे। लेकिन अचानक पैरों का जुड़ना...किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पैर जुड़ने के कारण मेरे ख़ड़े रहने का तो सवाल ही नहीं था लेकिन मैं न ढंग से बैठ पा रही थी और न ही सो पा रही थी। कुछ दिन तो मैं हाथों के बल पर घसीट-घसीट कर घर ही घर में यहां वहां चली जाती थी। लेकिन पैरों का काम हाथ कब तक करते? परिणामत: 10-15 दिनों बाद हाथों ने भी जबाब दे दिया था।
मेरा मायका तेल्हारा जि.आकोला, महाराष्ट्र का है। मुझे आकोला और शेगांव के डॉक्टरों को दिखाया गया। लेकिन उनके मुताबिक उन लोगों ने इस तरह की बीमारी के बारे में कभी सुना ही नहीं था तो वो इलाज कैसे करते? (सिर्फ़ उस वक्त के डॉक्टर ही क्यों आज तक मैं ने भी किसी और को इस तरह की कोई बीमारी हुई हो इस बारे में नहीं सुना। मुझे विश्वास हैं कि आपने भी नहीं सुना होगा। यदि आपने ऐसी बीमारी देखी या सुनी होगी तो मुझे टिप्पणी करके जरुर बताइएगा।)
मेरे मामाजी ने कहा कि एक बार इसे नागपुर मेडिकल में दिखा देते है। लेकिन मेरी दादी को एक लड़की के उपर इतना पैसा खर्च करना मंजुर नहीं था। खुद एक महिला होने के बावजूद उनकी नजरों में बहू और बेटी की कोई अहमियत नहीं थी। उन्होंने कहा, ''जब शेगांव और आकोला के डॉक्टरों ने जबाब दे दिया है, तो नागपुर में दिखाने की क्या जरूरत है? जाने-आने का खर्चा, डॉक्टरों की फीस, दवाई का खर्चा और अन्य खर्चे...जब इलाज ही नहीं तो एक लड़की के लिए इतना पैसा लगाने की क्या जरूरत है?''
मम्मी ने कहा, ''एक बार दिखा कर देखते है शायद कोई इलाज मिल जाए...'' दादी ने कहा, ''मेरे हिसाब से तो नागपुर दिखाने का कोई मतलब ही नहीं है। लेकिन फ़िर भी तुम जिद करके अपनी बेटी को नागपुर दिखाना चाहती हो, तो मेरी एक शर्त है। यदि बेटी ठीक हुई तो ही मैं दोनों माँ-बेटी को घर में घुसने दुंगी! नहीं तो इस घर के दरवाजे दोनों माँ बेटी के लिए हरदम के लिए बंद हो जायेंगे!! अब फैसला तुम्हारा है!!!''
हमारा 22-23 लोगों का संयुक्त परिवार था। घर में दादी का बोलबाला था। वो जो बोलती वो पत्थर की लकीर होती थी। घर का कोई भी सदस्य उनकी किसी भी बात को टाल नहीं सकता था। मम्मी भी उनकी हर ज्यादती चुपचाप सहन करती थी। पुरुषों में पापा ही घर में बड़े थे। घर में शांती बनी रहे...कोई ये न कहे कि ये खुद के बीबी और बच्चों की तरफ़ ज्यादा ध्यान देता है ऐसा सोचकर पापा घर में किसी भी बात में हस्तक्षेप नहीं करते थे। दादी माँ की ज्यादतियां इतनी ज्यादा थी कि घर में अनाज के भंडार भरे होने के बावजूद हमें कई बार भुखे पेट सोना पड़ता था!
ऐसे माहौल में जब दादी माँ ने ये शर्त रखी तो मैं पूरी तरह निराश हो गई थी। मुझे लगा कि अब मेरी जिंदगी खत्म! जब मैं अपने पैरों से चल ही नहीं पाउंगी तो जिंदगी में बचा ही क्या? मैं ने अभी तक मम्मी को दादी माँ की हर बात को शिरोधार्थ करते ही देखा था, चाहे वो बात कितनी भी गलत ही क्यों न हो! दादी माँ ने तो घर में घुसने न देने की धमकी दी थी। नागपुर दिखाने पर भी मैं अच्छी हो ही जाउंगी इसकी ग्यारंटी कोई नहीं दे सकता था। ऐसे में...लेकिन उस वक्त मेरी मम्मी ने मेरे भविष्य का सोचते हुए, यदि मैं अच्छी नहीं हुई तो मम्मी और मैं कहां रहुंगी इस बात की पर्वा न करते हुए नागपुर दिखाने का बहुत ही कठोर फैसला लिया।
नागपुर मेडिकल में भी डॉक्टरों को मेरी बीमारी समझ में नहीं आई। उन्होंने ने भी ऐसी किसी बीमारी के बारे में देखा-सुना नहीं था। तो इलाज कैसे करते? तब उन्होंने कहा कि हम ऑपरेशन करके भी पैर सीधे नहीं कर सकते। क्योंकि इस तरह की बीमारी के बारे में जानकारी न होने से ऑपरेशन कैसे करें ये ही हमें पता नहीं है! हम ट्रैक्शन दे कर देखते है...लेकिन कम से कम ढाई साल के पहले हम छुट्टी नहीं देंगे। मंजुर हो तो अॅडमिट करो...मेडिकल में ढाई साल रहना...मम्मी ने कहा कि जब उखल में सर दे ही दिया हैं तो मुसल से क्या डरना? जो होगा देखा जाएगा...आप अॅड्मिट तो करिए।
मेरे पलंग के उपर में दो खिराडी (कुएं का पानी निकालने में जो उपयोग में लाई जाती है) पर रेती की थैलियां बांध दी गई। पैर के नीचे के बाजू में भी दो खिराडी पर रेती की थैलियां बांधी गई। और इन चारों खिराड़ी की रस्सियां मेरे पैरों से बांधी गई। अब चारों रेती की थैलियों के वजन से मेरे पैरों की नसे बूरी तरह खिंची जा रही थी। जिससे मुझे असहनीय दर्द होता था। मैं जोर-जोर से राम राम…हरे राम..राम...हे राम...चिलात्ती रहती थी। लेकिन शायद मेरी आवाज राम तक नहीं पहूंच रही हैं ऐसा सोच कर मैं पूरी ताकत से रा...मा...रे.....चिल्लाती थी। पूरे 60-70 पेशंट वाले वार्ड में मेरी अकेली की आवाज चौबिसों घंटे गुंज रही थी। जब दो लोग रेती की थैलियों को थोड़ी देर पकड़ते तब मैं चैन की सास लेती। खाना खाने या पानी पीने के वक्त मम्मी रेती की थैलियों को पकड़ कर रखती तब मैं पानी आदी पी सकती थी।
बड़े डॉक्टर जब राउंड पर आए, पूरे वार्ड के मरीजों से बात की लेकिन मेरे बेड के बाजू से चुपचाप निकलने लगे। मम्मी ने उन्हें मुझे देखने कहा तो गुस्सा हो गए,"इसका कोई दूसरा इलाज नही है। ये चिल्लाती है तो चिल्लाने दो!!" एक भी दिन उन्होंने मुझ से बात नहीं की। डॉक्टर यदि पेशंट से अच्छे से बात करे तो उसकी आधी बीमारी ठीक हो जाती है। लेकिन ये बात इतने बड़े डॉक्टर को पता नहीं थी! खैर, हमारा नसीब।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन इस तरह तडपते-तडपते पूरे पाँच-छ: दिन हो गए। पाँच-छ: दिनों में मेरी हालत बहुत ही बिगड़ गई। तड़प-तडप कर मेरी पीठ में बेडसोल हो गए। और भी न जाने क्या क्या बीमारी हो गई...मेरी हालत बहुत ही बिगड़ गई। आठ दिन हो गए लेकिन मेरे पैर थोड़े से भी सीधे नहीं हुए। सभी को लगने लगा कि अब ये बच्ची नहीं बचती!!
मैं खुद भी पूरी तरह हार गई थी। मैं मम्मी से कहने लगी कि मम्मी मैं पूरी जिंदगी ऐसे ही बिता दुंगी लेकिन मुझे यहां से ले चलो!! आजू-बाजू के पेशंट मम्मी से कहने लगे की तुम्हारे बेटी की कुछ खाने की इच्छा होगी तो इसको खिला दो क्योंकि अब ये बचने वाली नहीं है!
लेकिन नौवे दिन चमत्कार हो गया। रामजी ने मेरी और मम्मी की सुन ली। मेरे घुटनों के वहां से पैरों में थोड़ी सी दूरी आ गई। वहां पर एक उंगली जाने लगी। इसका मतलब अब मेरे पैर सीधे हो सकते थे। इस तरह अगले आठ दिनों में मेरे पैर पूरी तरह सीधे हो गए। हालांकि अभी उनमें बराबर जान नहीं आई थी। पूरे मेडिकल के लिए मैं एक अजुबा बन गई थी। डॉक्टरों और स्टुडंट्स के जत्थे के जत्थे मुझे देखने आने लगे कि एक दुर्लभ बीमारी कैसे इतनी जल्दी अच्छी हो गई। इस तरह एक महीने के बाद मुझे हॉस्पिटल से छुट्टी भी मिल गई। घर आने पर आठ दिनों बाद दिवार को पकड़ कर मैं चलने लगी। हालांकि अच्छे से चलने में मुझे 5-6 महीने लग गए।
कल्पना कीजिए कि जो मम्मी घर में अनाज के भंडार भरे होने के बावजूद खुद भूखी रहती थी, जिनकी छोटी-छोटी बच्चियां कई बार भुखी रहने पर भी वो चूप रहती थी...मैं घर में बड़ी हूं यदि मैं ने थोड़ा सा सहन कर लिया तो क्या हुआ, घर में शांति तो बनी रहेगी ऐसा सोचती थी...हर ज्यादती चुपचाप सहन करती थी...अपनी जुबान कभी नहीं खोलती थी... उन्हें जब लगा कि ये मेरी बेटी के पूरे भविष्य का सवाल है, तो बिना किसी भयानक अंजाम की चिंता किए, उन्होंने अपनी बेटी को मतलब मुझे एक नया जीवन दिया। सचमुच ऐसी हिम्मत एक माँ ही कर सकती है!!
मुझे गर्व है कि मैं उनकी बेटी हूं! वैसे तो हर इंसान अपनी माँ का कर्जदार रहता है लेकिन मैं तो अपनी मम्मी का कर्ज जन्मों-जन्मों तक भी उतार नहीं सकती!
फिलहाल मेरे मम्मी की तबियत ठीक नहीं चल रही है। मेरे पापा का अगस्त 2019 में निधन हो गया था। जिससे मम्मी अब बहुत अकेली हो गई है। मदर्स डे पर मैं ईश्वर से यहीं प्रार्थना करती हूं कि मेरी मम्मी को थोड़ा सा स्वस्थ्य कर दे! और हे ईश्वर, इतनी कृपा कीजिए कि अगले जन्म में भी वो ही मेरी मम्मी बने और मैं उनके ही कोख से जन्म लूं!!!
डिसक्लेमर-
पीछले 4-5 साल से यह पोस्ट लिखने की मन में थी। पीछले साल तो लिख भी ली थी। लेकिन घर की बात कैसे बताऊँ यह सोच कर पोस्ट प्रकाशित नहीं कर पाई। लेकिन मैं आज अपने पैरों पर खड़ी हूं और चल फिर पा रही हूं, वो सिर्फ और सिर्फ़ मेरे मम्मी की हिम्मत की वजह से! इसलिए मदर्स डे पर मेरे मम्मी की हिम्मत से मैं सभी को रूबरू करवाना चाहती थी।
Maa akhir Maa hoti hai Maa ka karj toh 7 janm leker bhi nahi utar sakte bhagwan ne chaha to Mummy jald hi dhik hogi kyoki App jasi beti paker wo apne app ko khush naseeb hi manti hogi
जवाब देंहटाएंआपके मुंह मे घी शक्कर। बस मम्मी की तबीयत अच्छी रहे...
हटाएंमाँ, तेरे जज़्बे को, तेरी हिम्मत को सलाम !
जवाब देंहटाएंमाँ अपने बच्चों के कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार होती है। आपकी माता जी ने भी यही हिम्मत दिखाई। आपने सही कहा कि ऐसी हिम्मत केवल एक माँ ही कर सकती है। उनके जज्बे को सलाम। आशा है वह जल्द ही स्वस्थ होंगी। आभार।
जवाब देंहटाएंइतनी दर्दनाक बिमारी !!! माँ के साथ आपने भी बड़ी हिम्मत दिखाई ज्योति जी !
जवाब देंहटाएंआप जब चिल्ला रही होंगी तब माँ क्या हाल हुआ होगा ...। जब परिवार के बड़े और मुखिया इस तरह की शर्त रखें तब एक माँ ही इस तरह का रिस्क ले सकती है ...जिसे अपने बच्चे के सामने अपने कल की आज की कोई परवाह नहीं होती..नमन माँ को और आपको...भगवान उन्हें शीघ्र स्वस्थ कर दीर्घायु प्रदान करे।
सुधा दी, उस वक्त मैं सिर्फ ग्यारह साल की थी लेकिन मुझे सब कुछ बहुत ही अच्छे आए याद है। क्योंकि वो वक्त इतना भयावह था कि उसे भूल ही नहीं सकते। जब रेती की थैलियों से नसों में खिंचाव होता था...खैर बचानेवाला ईश्वर है।
हटाएंदीदी, दिल दहल गया पढ़कर। आज आपकी शख्सियत को देखकर कौन अनुमान लगा सकता है कि आप बचपन में इतने दर्दनाक हादसे/बीमारी से गुजरी थीं। माँ से मेरा प्रणाम कहिएगा। इस पोस्ट को सबसे साझा करके आपने सबको कठिन समय में हिम्मत ना हारने और अपनों का मनोबल बढ़ाते रहने की प्रेरणा दी है। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंमीना दी, सिर्फ बचपन नहीं मेरा पूरा जीवन ही संघर्षमय रहा है। कभी कुछ तो कभी कुछ...अभी हाल फिलहाल में 16 दिसंबर 2020 को मेरा रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन हुआ है। उसका दर्द अभी भी बना हुआ है। खैर,रामजी चाहे मेरी कितनी भी परीक्षा ले मुझे विश्वास है कि एक न एक दिन परीक्षा लेते लेते वे जरूर थक जाएंगे और कहेंगे...जा ज्योति जा...अब तुम्हे कोई बीमारी नहीं देता...जा...जी ले अपनी जिंदगी....
हटाएंईश्वर आपको सदैव स्वस्थ रखें दीदी। आप हिम्मत मत हारिए।
हटाएंमीना दी, हिम्मत से ही दर्द सहने की शक्ति मिल रही है।
हटाएंईश्वर से प्रार्थना है कि वे आपकी माताजी को सदैव स्वस्थ रखें। मेरी मम्मी भी बहुत हिम्मतवाली हैं। हो सका तो लिखूँगी उनके बारे में।
जवाब देंहटाएंइस कहानी ने मेरी आंखों की दशा बदल दी। मैं कहानी पढ रहा था और साथ-साथ रो भी रहा था। मेरे पापाजी का भी देहांत मार्च 2019 में हो गया है।
जवाब देंहटाएंअब क्या कहूं....बहुत भावुक कर दिया आपने। और मुझे पूरा भरोसा है आपकी माँ पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगी...इतने सुन्दर हृदय को ईश्वर और कितना दुखी करेगा। आप चिंता ना करें...सब ठीक हो जाएगा।
प्रकाश भाई, मुझे पूरा विश्वास है कि आपकी दुआओ से मम्मी जरूर ठीक होगी।
हटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा रविवार ( 09-05-2021) को
"माँ के आँचल में सदा, होती सुख की छाँव।। "(चर्चा अंक-4060) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित है.धन्यवाद
…
"मीना भारद्वाज"
मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, मीना दी।
हटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण,तथा संघर्षों को चुनौती देती आपके जीवन की यह प्रेरणादायक कहानी पढ़कर भावविभोर हो गई ज्योति जी,अप बड़ी जीवट है,आपको शुभकामना सहित सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर लेख ।प्रेरित करने वाला ।
जवाब देंहटाएंओह ! मर्मस्पर्शी ज्योति बहन ।
जवाब देंहटाएंआप ठीक हो गये ये एक माँ का विश्वास और हौसला जीता था।
प्रभु माँ को सस्वस्थ लम्बी उम्र दें ।
आँखे भर आई आपकी आप बीती पर ।
बहुत सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमातृ दिवस पर बहुत सार्थक प्रस्तुति, आपकी माँ व आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबहुत ही दर्दनाक और संघर्षमयी पर प्रेरणादायक आपबीती ! माँ को सादर प्रणाम
जवाब देंहटाएंसच में चमत्कारिक जीवनानुभूति । माँ को नमन ।
जवाब देंहटाएंप्रेरक और भावनापूर्ण प्रस्तुति, बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंयह सब आपकी माँ की प्रार्थनाओं का चमत्कार था जो आप पूर्णतः स्वस्थ हो गईं। बहुत हिम्मत वाली है आपकी माँ और आप भी ज्योति जी।माँ को नमन
जवाब देंहटाएं"मुझे गर्व है कि मैं उनकी बेटी हूं! वैसे तो हर इंसान अपनी माँ का कर्जदार रहता है लेकिन मैं तो अपनी मम्मी का कर्ज जन्मों-जन्मों तक भी उतार नहीं सकती! "
जवाब देंहटाएंआपने ठीक कहा कि-माँ का कर्ज नहीं चुकाया जा सकता और ऐसी माँ का कर्ज तो आप कई जन्मो तक नहीं चूका सकती। आपकी सहन शक्ति और हौसला तथा माँ के हिम्मत और सब्र को सत-सत नमन।
यदि आप ये कहानी हम सब से साझा नहीं करती तो उस देवी जैसी माँ की हिम्मत के साथ अन्याय होता और हम सभी मायें भी इस प्रेरणा से अछूती रह जाती। इस मर्मान्तक आपबीती को साझा करने के लिए हृदयतल से आभार ज्योति जी,इसे पढ़ते-पढ़ते दर्द अपने भीतर महसूस हो रहा था और रोंगटे खड़े हो रहे थे। वो दौड़ सचमुच बहुत खराब था जब एक हुक्मरान के कारण कई आत्मा पड़ताड़ित हो रही थी। तभी तो कहते हैं कि -औरत ही औरत की पहली दुश्मन है और पुरुष तो मौन धारण किये एक सहायक भर है। आपकी माँ जैसी हिम्मत उस दौर में लाखों में एक औरत में होती थी। इसलिए भी आपकी माँ पूजनीय है ,आप दोनों को मेरा सादर नमन
कामिनी दी, कहते है न कि घर की बात बाहर नही जाना चाहिए। यही सोच कर प्रकाशित करने की हिम्मत नही हो रही थी। मेरे अपने कई रिश्तदारों और परिचितों को भी यह पता नही था। जो उम्रदराज लोग है उन्हें भी सिर्फ यही पता था कि मेरे पैर जूड़े थे। बाकी माँ की हिम्मत के बारे में पता नही था। इसलिए मैं बताना चाहती थी।
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