हर इंसान को अपनी इच्छानुसार विवाहित या अविवाहित जीवन व्यतीत करने का पूर्ण अधिकार है। फिर विधवाओं ने ऐसा कौन सा जघन्य अपराध किया है जिससे उनका ये अधिकार छीन लिया जाय।
संसार भर के मनुष्यों की मान्यता है कि प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को, चाहे वह नर हो या नारी, अपनी इच्छानुसार विवाहित या अविवाहित जीवन व्यतीत करने का पूर्ण अधिकार है। फिर विधवाओं ने ऐसा कौन सा जघन्य अपराध किया है जिससे उनका ये अधिकार छीन लिया जाय। संसार में अन्यत्र विधवा विवाह को क़ानूनी, सामाजिक हर तरह की मान्यता है। लेकिन भारत में अजब तरह के ग़जब अजूबे देखे जाते है। जैसे एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य के छूने मात्र से अपवित्र हो जाता है। एक के हाथ का छुआ पानी दूसरा नहीं पी सकता! इन्हीं अजूबों की तरह हमारे यहां विधवा विवाह को समाज सामान्यत: मान्यता नहीं देता। क्या पाप किए है विधवाओं ने? जब पुरुष को उसकी पत्नी की मृत्यु होने पर दोषी नहीं समझा जाता तब नारी को उसके पति की मृत्यु होने पर दोषी क्यों समझा जाता है? वो नारी जाती में पैदा हुई क्या यही उसका सबसे बड़ा गुनाह है? क्या नारी इंसान नहीं है? उसे भावनाएं नहीं है? परंपरा के नाम पर इन्हें इनके अधिकार से वंचित रखा जाता है।
वृन्दावन और बनारस में पिछले कई सालों से रह रही सैकड़ों विधवायें, समाज की मुख्यधारा से दूर एक गुमनाम जिंदगी बिता रही है। इन विधवाओं को उनके बेटे या परिवार वाले कृष्ण-दर्शन के नाम पर छोड़ गए और फिर लौटकर कभी उनका हाल पूछने नहीं आए!
धार्मिक मान्यता
सती प्रथा
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हमारी धार्मिक मान्यता ऐसी है कि विधवाओं ने पुनर्विवाह करना तो दूर, सोचना भी नहीं चाहिए! क्योंकि ऐसा सोचने भर से भी वे पाप की भागीदार बनेंगी! विधवाओं ने अपनी सभी इच्छाओं का गला घोंट कर, एक जिन्दा लाश बन कर, धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में अपना मन लगा कर अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। किसी भी शुभ कार्य में विधवा का प्रवेश वर्जित होता है जबकि विधुर के लिए कोई रोकटोक नहीं होती। विधवा यदि सम्मिलित हुई और कोई अनहोनी हो जाय तो सारा दोष विधवा को दिया जाता है। और यदि कार्य सफल रहा तो विधवा को कोई श्रेय नहीं दिया जाता।
पुरातन काल में सती प्रथा थी। पति के मरते ही उसकी पत्नी को जिन्दा जला दिया जाता था। निश्चित तौर पर यह प्रथा अमानवीय थी। एक जिन्दा इंसान को बड़ी आसानी से सम्मान जनक जामा पहना कर सबके सामने, सबकी गवाही से जलाना, सोच कर ही शरीर पर रोंगटे खड़े हो जाते है। किंतु समाज में विधवाओं की स्थिति देख कर ऐसी शंका मन में आती है कि शायद हमारे पूर्वजों को विधवाओं की दुर्दशा का भली-भांति पूर्वानुमान था! पति के मरने पर उस नारी पर क्या बीतेगी, यह वे अच्छी तरह जानते थे। इसलिए विधवा नारी को हर रोज तिल-तिल मरने देने की बजाय एक बार में ही मार देते थे! आज सती प्रथा लगभग बंद हो गई है। लेकिन क्या विधवा नारी खुश है? वो तो आज भी रोज थोड़ा-थोड़ा मर रही है। उसकी वेदना सुननेवाला इस सुधारवादी समाज में कोई नहीं है।
अशिक्षा
अनपढ़ होने की वजह से इन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने मजबूर हो जाती है। विधवाओं के लिए राज्य और केंद्र सरकार की कई योजनाएं है लेकिन अशिक्षा की वजह से इन योजनाओं का लाभ उन तक नहीं पहुंच पाता। एक अनुमान के मुताबिक भारत में 4.5 करोड़ विधवाएं है। इनमें से 4 करोड़ विधवाओं को विधवा पेंशन नहीं मिल पाती।
विधवाओं की स्थिति का आकलन
विधवा स्त्रियों को व्यंग बाणों, शंकाओं और गलतफ़हमियों के दर्दनाक आघात झेलने पड़ते है। एक विधवा क्या करती है? कहां-कहां जाती है? उसके यहां कौन-कौन आता है? इन सभी बातों को ज़रूरत से ज्यादा तूल देकर उसका जीना दूभर कर दिया जाता है। इतना ही क्यों, जिन बच्चों को पाल-पोस कर वो बड़ा करती है, उन्ही की शादी में उसकी छाया अशुभ मानी जाती है। क्या एक माँ, वो विधवा है इसलिए अशुभ हो सकती है? आखिर कब बदलेंगे हमारे समाज के मानदंड? वास्तव में एक विधवा की तड़प को महसूस करना बहुत ही मुश्किल है। समाज जो बंधन लगाता है, उसकी तो कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि उसके पास तो अपने स्वयं के बंधन ही काफी है। पति की याद का बंधन ही काफी है!
विधवा विवाह की आवश्यकता
• हर व्यक्ति एक ऐसा साथी चाहता है, जिससे वह सुख-दू:ख में बेहिचक अपने अंतर्मन की बात कह सके! ऐसा साथी केवल पति या पत्नी ही हो सकते है।
• वृद्धावस्था में इंसान अधिक एकाकी हो जाता है। वृद्धावस्था में साथ देने के दृष्टिकोन से भी विधवा विवाह योग्य है।
• नारी स्वतंत्रता की बाते करने वाले भी जब पुनर्विवाह का विरोध करते है, तब बहुत आश्चर्य होता है। पुनर्विवाह से बदनामी होगी, रिश्तेदार नाराज़ होंगे लेकिन कितने दिनों तक? समय के साथ-साथ सब शांत हो जायेगा।
सचमुच, विधवाएं बेहद अकेली है। मनहूस सुबह, वीरान दोपहर, उदास शामें और सिसकती रातें गुजारती है। पुनर्विवाह एक हल हो सकता है। इंतजार रहता है एक ऐसे साथी का, जो अतीत के पन्ने फड़फड़ाये बिना वर्तमान और भविष्य को संजो सके।
पुनर्विवाह का मतलब, स्वैराचार नहीं है। पुनर्विवाह का मतलब है, इंसानियत का दर्शन! विधवा 'बेचारी' नहीं होती! वह भी एक परिपूर्ण नारी है, जिस में वे सारी योग्यताएं है, जो अन्य महिलाओं में है। बस जरुरत है उन्हें 'बेचारी' शब्द से बाहर निकालने की! इसके लिए सरकार नहीं, समाज की सोच को बदलना होगा और समाज में हम भी आते है!